माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः । -भूमि माता है, मैं उसका पुत्र हूँ। यह पंक्त्ति्याँ तो आपने सुनी ही होगी , अगर आप नही जानते तो बता दें कि येे पंक्तियाँ वासुदेव शरण अग्रवाल की
आज हम आपको अपने लेक वासुदेव शरण अग्रवाल जीवन परिचय | Hindi Notes 2023 में इनका सम्पूर्ण जीवन परिचय प्रस्तुत करेंगे ।
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संक्षिप्त परिचय
नाम | डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल |
जन्म | 1904 ई० |
जन्म स्थान | उत्तर प्रदेश का मेरठ जिला और खेड़ा नामक ग्राम में |
शिक्षा | M.A. , P.H.D. , D.Lit. आदि |
लेखन विधा | निबन्ध, सम्पादन कार्य, शोध आदि |
भाषा शैली | शुद्ध खड़ी बोली, विचार प्रधान, गवेषणात्मक, व्याख्यात्मक तथा उद्धरण |
साहित्यक जीवन | निबन्धकार, शोधकर्ता तथा सम्पादक |
साहित्य में स्थान | अग्रवाल जी निबन्धकार के रूप में प्रसिद्ध है । |
मृत्यु | 1967 ई० |
जीवन परिचय
भारतीय संस्कृति और पुरातत्त्व के विद्वान् वासुदेव शरण अग्रवाल का जन्म 1904 ई. में उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के खेड़ा नामक ग्राम में हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद एम.ए., पी.एच.डी. तथा डी.लिट्. की उपाधि इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इन्होंने पालि, संस्कृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं एवं उनके साहित्य का गहन अध्ययन किया।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारती महाविद्यालय में ‘पुरातत्त्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे वासुदेव शरण अग्रवाल दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय के भी अध्यक्ष रहे। हिन्दी की इस महान् विभूति का 1967 ई. में स्वर्गवास हो गया।
साहित्यक सेवाएँ
इन्होंने कई ग्रन्थों का सम्पादन व पाठ शोधन भी किया। जायसी के ‘पद्मावत’ की संजीवनी व्याख्या और बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत करके इन्होंने हिन्दी साहित्य को गौरवान्वित किया। इन्होंने प्राचीन महापुरुषों— श्रीकृष्ण, वाल्मीकि, मनु आदि का आधुनिक दृष्टिकोण से बुद्धिसंगत चरित्र-चित्रण प्रस्तुत किया।
निबंध संग्रह
पृथिवी पुत्र, कल्पलता, कला और संस्कृति, बल्पवृक्ष, भारत को एकता, माता भूमि, बाग्बारा आदि।
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सम्पादन
जायसीकृत पद्मावत की संजीवनी व्याख्या बाणभट्ट के हर्षचरित का सांस्कृतिक अध्ययन। इसके अतिरिक्त इन्होंने पालि प्राकृत और संस्कृत के अनेक प्रत्यों का भी सम्पादन किया
शोध
पाणिंनिकालीन भारत
भाषा शैली
डॉ. अग्रवाल की भाषा-शैली उत्कृष्ट एवं पाण्डित्वपूर्ण है। इनकी भाषा शुद्ध तथा परिष्कृत खड़ी बोली है। इन्होंने अपनी भाषा में अनेक प्रकार के देशज शब्दों का प्रयोग किया है, जिसके कारण इनकी भाषा सरल एवं व्यावहारिक लगती है।
इन्होंने प्रायः उर्दू, अंग्रेजी आदि को शब्दावली, मुहावरा लोकोक्तियों का प्रयोग नहीं किया है। इनकी भाषा विषय के अनुकूल है। संस्कृतनिष्ठ होने के कारण भाषा में कहीं-क अवरोध आ गया है, किन्तु इससे भाव प्रवाह में कोई कमी नहीं आई है। अग्रवाल जी की शैली में उनके व्यक्तित्व तथा विद्वता को सहव अभिव्यक्ति हुई है। इसलिए इनकी शैली विचार प्रधान है। इन्होंने गवत उद्धरण शैलियों का प्रयोग भी किया है।
हिंदी साहित्य में स्थान
पुरातत्व विशेषज्ञ डॉ. वासुदेवशरण अवाल हिन्दी साहित्य में प्रामित्यपूर्ण एवं सुखलित निवन्धकार के रूप में प्रसिद्ध है। पुरातत्त्वं य अनुसन्धान के क्षेत्र में उनको समता कर पाना अत्पना कठिन है। उसे एक विद्वान टीकाकार एवं साहित्यिक पत्यों के कुशल सम्पादक के रूप में भी जाना जाता है। अपनी विवेचना पद्धति की मौलिकता एवं विचारशीलता के कारण वे सदैव स्मरणीय रहेंगे ।
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भारतीय संस्कृति और पुरातत्त्व के विद्वान् वासुदेव शरण अग्रवाल का जन्म 1904 ई. में उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के खेड़ा नामक ग्राम में हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद एम.ए., पी.एच.डी. तथा डी.लिट्. की उपाधि इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इन्होंने पालि, संस्कृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं एवं उनके साहित्य का गहन अध्ययन किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारती महाविद्यालय में ‘पुरातत्त्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे वासुदेव शरण अग्रवाल दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय के भी अध्यक्ष रहे। हिन्दी की इस महान् विभूति का 1967 ई. में स्वर्गवास हो गया।)