Sandhi in Sanskrit (संस्कृत सन्धि): नमस्कार मित्रों आज के लेख में हम आपके लिये संस्कृत की सन्धि Sandhi in Sanskrit लेकर आये है, इस लेख में आपके लिये संस्कृत सन्धि का अर्थ,परिभाषा,प्रकार और उसके सभी उदाहरणों को बताया जाएगा।
अगर आप किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है तो आपके लिये यह अध्याय बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि सभी परीक्षाओ में सन्धि के एक या दो नंबर के प्रश्नें जरूर पूंछे जाते है, हम आपको Sandhi in Sanskrit से जुड़ी सभी जानकारी दे रहे आप इस लेख से जुड़े रहें।
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सन्धि का अर्थ | Sandhi ka arth
सन्धि का सामान्य अर्थ है- ‘मेल’ या ‘जोड़’ दो वर्णों (स्वर, व्यज्जन, विसर्ग) के निकट आने से उनमें जो मेल या विकार उत्पन्न होता है, उसे सन्धि कहते हैं; उदाहरण
- हिम + आलय: = हिमालय (अ + आ = आ)
- रमा + ईश: = रमेश ( आ + ई = ए)
- सूर्य उदय सूर्योदय (अ + उ = ओ)
- यहाँ स्वर वर्णों के मेल से परिवर्तन हुआ है। यह परिवर्तन अलग-अलग रूपों में दिखाई पड़ रहा है। इसी आधार पर सन्धि को अलग-अलग संज्ञा प्रदान की गई है।
सन्धि की परिभाषा
- सन्धि (सम् + धा + कि) शब्द का अर्थ है ‘मेल’ या जोड़। दो निकटवर्ती वर्णों के परस्पर मेल से जो विकार (परिवर्तन) होता है वह संधि कहलाता है।
- जब दो शब्द मिलकर किसी तीसरे शब्द का निर्माण करते है और जब उस तीसरे शब्द में जो परिवर्तन आता है उसे सन्धि कहते है।
- जब किसी शब्द को अलग अलग करके उसमें विक्षेद किया जाता है उसे सन्धि विक्षेद कहते है।
सन्धि के प्रकार | Sandhi in sanskrit
सन्धि के भेद तीन प्रकार के होते है ।
- स्वर सन्धि (अच्)
- व्यञ्जन सन्धि (हल)
- विसर्ग सन्धि
स्वर सन्धि | अच् सन्धि
स्वरों के परस्पर मेल को ही ‘अच् सन्धि’ कहते हैं। अच् या स्वर सन्धि मुख्य रूप से पाँच प्रकार की होती है
- दीर्घ सन्धि
- यण् सन्धि
- गुण सन्धि
- वृद्धि सन्धि
- अयादि सन्धि
इनके अतिरिक्त ध्वनि के आधार पर दो और सन्धियों को स्वर सन्धि के अन्तर्गत रखा गया है
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- पूर्वरूप सन्धि
- पररूप सन्धि
1. दीर्घ सन्धि
(अकः सवर्णे दीर्घः) अकः सवर्णेऽचि परे पूर्वपरयोदीर्घ एकादेशः स्यात् । अर्थात् यदि ह्रस्व या दीर्घ स्वर अ, इ, उ,ऋ, लृ के बाद सवर्ण आए, तो दोनों का दीर्घ हो जाता है। दीर्घ सन्धि के उदाहरण निम्नलिखित है।
- मत + अनुसारम् मतानुसारम् (अ+ अ = आ)
- स + अक्षर: = साक्षरः (अ + अ = आ)
- परम + आत्मा = परमात्मा (अ + आ = आ)
- विद्या + आलय: विद्यालय (आ + आ = आ)
- रवि + इन्द्रः = रवीन्द्र (इ + इ = ई)
- गिरि + ईश: = गिरीश ( इ + ई = ई)
- लघु + उत्तरम् = लघूत्तरम् (उ+ उ = ऊ)
- वधू + उत्सव + वधूत्सवः (ऊ+ उ = ऊ)
- पितृ + ऋणम् = पित्रणमः (ऋ+ऋ = ऋ)
2.यण् सन्धि
(इको यणचि) “इक: स्थाने यण् स्यात् अचि संहितायां विषये।” अर्थात् ह्रस्व या दीर्घ इ, उ, ऋ के बाद यदि कोई अ सवर्ण स्वर आता है, तो क्रमशः य्, व्, र् हो जाता है; इसे यण् सन्धि कहते हैं । यण सन्धि के उदाहरण निम्नलिखित है।
- यदि + अपि यद्यपि ( इ + अ = य)
- अधि + अयन: = अध्ययन (इ+ अ = य)
- इति + आदिः = इत्यादिः (इ + आ = या)
- प्रति + उत्तर: = प्रत्युत्तरः ( इ + उ = यु)
- अनु + अयः = अन्वयः ( उ + अ = व)
- सु + आगतः = स्वागत: (सु + आ = वा)
- पितृ + आदेश: = पित्रादेशः (ऋ + आ =रा)
3. गुण सन्धि
(आद् गुणः)”अवर्णादचि पर पूर्वपरयोरेको गुणः आदेशः स्यात्।” अर्थात् अ अथवा आ के पश्चात् ह्रस्व या दीर्घ इ, उ, ऋ एवं लृ आने पर क्रमशः ए, ओ, अर्, अल् जाता है, इसे गुण सन्धि कहते हैं; गुण सन्धि के उदाहरण निम्नलिखित है।
- नर + इन्द्रः = नरेन्द्रः (अ + इ = ए)
- तथा + इति = तथेति (आ + इ = ए)
- पर + उपकार: = परोपकरः (अ + उ = ओ)
- देव + ऋषि: = देवर्षि: (अ + ऋ = अर्)
4.वृद्धि सन्धि
(वृद्धिरेचि)“आदेचि पर वृद्धिरेकादेशः स्यात् । अर्थात् जब अ अथवा आ के बाद ए या ऐ आए, तो ‘ऐ’, ओ या औ आए, तो ‘औ’ हो जाता है, इसे वृद्धि सन्धि कहते हैं; वृद्धि सन्धि के उदाहरण निम्नलिखित है।
- तंत्र + एव = तत्रैव (अ + ए = ऐ)
- मत + ऐक्य = मतैक्य (अ + ऐ = ऐ)
- सर्वदा + एव = सर्वदैव (आ + ए = ऐ)
- महा + ऐश्वर्य = महैश्वर्य ( आ + ऐ = ऐ)
- वन + ओषधि = वनौषधि (अ + ओ = औ)
- महा + औदार्य =महौदार्य (आ + औ = औ)
5.अयादि सन्धि
(ऐचोऽयवायावः) “एच: स्थानेऽचि परतोऽय अब, आय्, आव् इत्येते।” अर्थात् जब ए, ऐ, ओ और औ (एच्) के आगे कोई स्वर आवे, तो उन (एच) के स्थान में क्रमशः अय्, आय् तथा अव, आव् हो जाते हैं। अर्थात् ए के स्थान में अय्, ऐ के स्थान में आय्, ओ के स्थान में अव् और औ के स्थान में आव् हो जाते हैं; जैसे-
- ने + अनम् = नयनम्
- पो + अनः = पवनः
- शे + अनम् = शयनम्
- नौ + इकः = नाविकः
- नै + अक: = नायक:
- पौ + अक: = पावकः
- भो + अनम् = भवनम्
- गै + अक: = गायक:
पूर्वरूप: सन्धि
एङ: पदान्तादति पदान्तादेङोऽति परे पूर्वरूपमेकादेशः स्यात्।” अर्थात् जब किसी पद के अन्त में एकार या ओकार (एङ) हो और उसके बाद में अ आया हो, तो दोनों ही स्थान में क्रमशः एकार तथा ओकार (पूर्व रूप) हो जाते हैं, चिह्न अ की पूर्व उपस्थिति के सूचक के रूप में (5) रख दिया जाता है; उदाहरण
- हरे + अव = हरेऽव (हे हरि ! रक्षा कीजिए।)
- विष्णो + अव = विष्णोऽव (हे विष्णु ! रक्षा कीजिए । )
पररूपः
(एङि पररूपम्)“आदुपसर्गाद्एङादौ धातौ परे पररूपमेकादेशः स्यात्। यदि अकारान्त उपसर्ग के बाद ऐसी धातु जिनके आरम्भ में ए अथवा ओ हो, तो उपसर्ग का अ तथा धातु के ए या ओ दोनों के स्थान पर ‘ए’ या ‘ओ’ हो जाता है; उदाहरण
- प्र + एजते = प्रेजते
- उप + ओषति = उपोषति
व्यञ्जन सन्धि | हल् सन्धि
किसी व्यञ्जन के बाद व्यञ्जन या स्वर वर्ण के मेल से उत्पन्न विकार को, व्यब्जन या हल् सन्धि कहते हैं; जैसे
- वाक् + ईश: = वागीशः
- दिक् + गज: = दिग्गज:
- अच् + अन्तः = अजन्तः
- सत् + जनः = सज्जनः
व्यञ्जन या हल् सन्धि के अन्तर्गत श्चुत्व, ष्टुत्व, जशत्व, चर्त्व, अनुस्वार, अनुनासिक, लत्व, छत्व, शत्वादि, षत्व, णत्व सन्धियाँ आती हैं , जो हम अपने लेख Sandhi in Sanskrit (संस्कृत सन्धि) में विस्तृत रूप में जानेंगे।
1.श्चुत्व सन्धि
(स्तोः शचुनाश्चुः) “सकार तवर्गयोः शकारः चवर्गाभ्यां योगे शकार चवर्गों स्तः ।” अर्थात् सकार या त वर्ग के साथ शकार या च वर्ग आए, तो सकार और त वर्ग के स्थान में क्रम ‘शकार और च वर्ग हो जाते हैं; शचुत्व सन्धि के उदाहरण निम्नलिखित है।
- हरिस् + शेते = हरिश्शेते (हरि सोता है।)
- रामस् + चिनोति = रामश्चिनोति (राम इकट्ठा करता है।)
- सत् + चित् = सच्चित् (सत्य और ज्ञान)
- सत् + चयनम् = सच्चयनम् (सही चुनाव)
2.ष्टुत्व सन्धि
(ष्टुना ष्टुः) “स्तो ष्टुना योगे ष्टु स्यात्।” अर्थात् सकार या त वर्ग के साथ घ् या ट वर्ग आए, तो सकार और त वर्ग के स्थान में क्रम से ष और ट वर्ग हो जाते हैं; जैसे- ष्
- रामस् + षष्ठः = रामष्षष्ठः (राम छठा है।)
- रामस् + टीकते = रामष्टीकते (राम जाता है।)
- तत् + टीका = तट्टीका (उसकी टीका या व्याख्या)
- चक्रिन् + ढौकसे चक्रिण्ढौकसे (हे कृष्ण! तू जाता है।)
3.जशत्व सन्धि
जशत्व सन्धि के दो भेद होते हैं इसको भी दो भागों में विभाजित किया जाता है
(क) पदान्त जशत्व सन्धि (झलां जशोऽन्ते) (812139) “पदान्ते झलां जशः स्युः ।” पदान्त में आने वाले झलों (प्रत्येक वर्ग के 1, 2, 3 और ऊष्म) के स्थान पर जश् (अपने वर्ग के तृतीय वर्ण) हो जाते हैं; जैसे-
- सत् + जनः सज्जनः
- सत् + चित् सच्चित्
(ख) अपदान्त जशत्व सन्धि (झलां जश् झशि) (814153) ” झल् अर्थात् अन्तःस्थ-य्, र् ल् व् और अनुनासिक व्यञ्जन को छोड़कर और किसी व्यञ्जन के पश्चात् झश् (किसी वर्ग का तृतीय या चतुर्थ वर्ण) आए, तो पहले वाले व्यञ्जन जश् (ज्, ब्. गु., इ. द) में बदल जाते हैं, जैसे-
- अप + धि = अब्धि
- दोष + धा = दोग्धा
- लभ् + धः = लब्धः
- योध् + धा = योद्धा
4.चत्वं सन्धि
(खरि च) (“खरि झलां चरः स्युः।” यदि झल् प्रत्याहारवाले वर्ण के आगे खर प्रत्याहार के वर्ण (वर्णों का प्रथम, द्वितीय तथा शू. पू. स् में से कोई) हो, तो झल् के स्थान पर चर प्रत्याहार के अक्षर (कृ. च् द, तू पु) जाते हैं, जैसे-
- विपद् + काल: = विपत्काल
- सम्पद् + समयः = सम्पत्समयः
- ककुभ् + प्रान्तः = ककुप्प्रान्तः
5.अनुस्वार सन्धि
(मोऽनुस्वारः)”मान्तस्य पदस्यानुस्वारो हलि । “यदि किसी पद के अन्त में म् आया हो और उसके बाद कोई व्यज्जन वर्ण हो, तो उसके स्थान में अनुस्वार हो जाता है; जैसे-
- सम् + वादः = सम्वादः
- सम् + कल्प = सङ्कल्प
- हरिम् + वन्दे = हरिं वन्दे
- गृहम् + गच्छति = गृहं गच्छति
- दुःखम् + प्राप्नोति = दुःखं प्राप्नोति
6.लत्व सन्धि
(तोर्लि) “तवर्गस्य लकारे परे पर सवर्णः।”यदि त वर्ग के किसी वर्ण से परे ल हो, तो त वर्गीय वर्ण के स्थान पर ल् हो जाता है; जैसे-
- उद + लिखितम् = उल्लिखितम्
- उद् : + लेख: = उल्लेख
- तद् + लीनः = तल्लीनः
- विद्वान + लिखति = विद्वांल्लिखति
- वृहत् + लाभः = वृहल्लाभः
- उत् + लास: = उल्लासः
विशेष अनुनासिक न् के स्थान में अनुनासिक ल होता है।
7.परसवर्ण सन्धि
(अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:)यदि अनुस्वार से परे यय् प्रत्याहार का वर्ण (श, ष, स, ह को छोड़कर) हो, तो अनुस्वार के स्थान पर परसवर्ण (अग्रिम वर्ण का सवर्ण, वर्ग का पाँचवाँ वर्ण) हो जाता है; जैसे-
- धनम् + जय (मोऽनुस्वार) धनं + जय = धनञ्जयः
- त्वम् + करोषि (मोऽनुस्वारः) त्वं + करोषि = त्वङ्करोषि
- त्वाम् + पश्यामि (मोऽनुस्वारः) त्वां + पश्यामि = त्वाम्पश्यामि
विसर्ग सन्धि
विसर्ग (:) के आगे स्वर या व्यञ्जन वर्ण होने पर विसर्ग में जो विकार होता है, उसे विसर्ग सन्धि कहते हैं। विसर्ग सन्धि के भेद निम्नलिखित है।
1.विसर्जनीयस्य सः
विसर्ग के बाद यदि ‘खर’ प्रत्याहार का कोई वर्ण (वर्णों का प्रथम, द्वितीय तथा श्, ष् स्) रहे, तो विसर्ग के स्थान में स् हो जाता है; विसर्जनीयस्य स: के उदाहरण निम्नलिखित है।
- हरिः + चरति = हरिस् + चरति = हरिश्चरति
- नरः + चलति = नरस् + चलति = नरश्चलति
- पूर्णः + चन्द्रः = पूर्णस् + चन्द्रः = पूर्णश्चन्द्रः
- गौः चरति = गौस् + चरति = गौश्चरति
- प्रभुः + चलति = प्रभुस् + चलति = प्रभुश्चलति
उपरोक्त उदाहरणों में विसर्ग को स होने के बाद ‘स्तो: शचुनाश्चुः’ के द्वारा स् का श् हो गया है।
2.ससजुषोरु:
पदान्त स् तथा सजुष् शब्द के ष् के स्थान में र् (रु) हो जाता है। इस पदान्त र के बाद खर् प्रत्याहार (वर्गों के प्रथम,द्वितीय और श्, ष, स्) का कोई अक्षर हो अथवा कोई भी वर्ण न हो, तो र के स्थान में विसर्ग हो जाता है; इसके उदाहरण निम्नलिखित है।
- रामस् + पठति > रामर + पठति = रामः पठति ।
- सजुष्> सजुर् = सजुः ।
3.अतोरोरप्लुतादप्लुते
अलुप्त अत् (ह्रस्व ‘अ’) से परे रु (र्) के स्थान पर उ हो जाता है, यदि उसके बाद अत् (ह्रस्व ‘अ’) हो; अतोरोरप्लुतादप्लुते के उदाहरण निम्नलिखित है।
- बालस + अस्ति = बालर् + अस्ति = बाल उ + अस्ति बालोअस्ति = बालोऽस्ति।
- शिवम् + अर्च्य: शिवर् + अर्च्य: शिव उ + अर्च्यः शिवो + अर्च्यः + शिवोऽर्च्यः ।
- मूर्खम् + अपि = मूर्ख र् + अपि = मूर्ख उ + मूर्खो अपि = मूर्खोऽपि ।
- कस् अपि = कर् + अपि = क उ + अपि = को + अपि = कोऽपि
यहाँ सर्वत्र पहले स् को रु (र) हुआ है, तदनन्तर ‘र्’ को उ हुआ है, फिर गुण ओ हुआ है और अंत मे पूर्वरूप हुआ है। इसी प्रकार रामोऽस्ति, एषोऽब्रवीत, सोऽपि आदि में समझना चाहिए।
4.हशि च
अलुप्त अत् (ह्रस्व ‘अ’) से परे रु (र) को ‘उ’ हो जाता है, यदि हश् (ह, य्, व्, र्, ल्, ञ्, म्, ड्, ण्, न्, झ, भू, ध्, द्, ज्,बू, भू, ड्, द्) परे हो; इसके उदाहरण निम्नलिखित है।
- बाल: + गच्छति = बालोगच्छति
- मूर्ख + याति = मूखोंयाति
- कृष्णः + नमति = कृष्णोनमति
- छात्र: + गृहणाति = छात्रोगृहणाति
- शिवः + वन्द्यः = शिवोवन्द्यः
5.खरवसानयोर्विसर्जनीयः
खर् (ख्, फ्, छ्, ठ्, थ्, च्, ट्, त्, क्, प्, श्, षः स्) परे होने पर और अवसान में रेफ र के स्थान पर विसर्ग हो जाता है; उदाहरण
- कविर् + खादति = कविः खादति
- गुरुर् + पाठयति = गुरुः पाठयति
- वृक्षर् + फलति = वृक्षः फलति
वा शरि
शर् (श्, ष्, स्) परे होने पर विसर्ग के स्थान में विकल्प से विसर्ग ही रहता है; जैसे-
- हरिः + शेते = हरिश्शेते।
रोरि
यदि र् से परे र् हो तो, पूर्व र् का लोप हो जाता है। उस लुप्त ‘र्’ से पहले यदि अ, इ, उ हो तो उनका दीर्घ हो जाता है; जैसे- ;
- गौर् + रम्भते = गौ रम्भते
- पुनर् + रमते = पुनारमते
- हरिर् + रम्य: = हरी रम्य:
- हरेर् + रमणम् = हरे रमणम्
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Sandhi in Sanskrit (संस्कृत सन्धि)- अर्थ,परिभाषा,प्रकार और उदाहरण के FAQs
संधि के संस्कृत में कितने भेद होते हैं?
अथवा जब स्वर के साथ स्वर वर्णों का मेल होता है, तब उस परिवर्तन को स्वर संधि कहते हैं। जैसे- नदी + ईश = नदीश: ( ई + ई = ई)। संस्कृत में संधियाँ तीन प्रकार की होती हैं, स्वर संधि, व्यंजन संधि और विसर्ग संधि।
संस्कृत में संधि विच्छेद कैसे होता है?
संधि किये गये शब्दों को अलग-अलग, पहले की तरह करना ही संधि विच्छेद कहलाता है। जैसे हिमालयः को ‘हिम + आलयः’, रमेशः को “रमा + ईशः” आदि रूपों में लिखना संधि विच्छेद कहलाता है।
संधि की पहचान कैसे की जाती है?
दो निकटवर्ती वर्णों के परस्पर मेल से जो विकार (परिवर्तन) होता है वह संधि कहलाता है। संस्कृत, हिन्दी एवं अन्य भाषाओं में परस्पर स्वरो या वर्णों के मेल से उत्पन्न विकार को सन्धि कहते हैं। जैसे सम् + तोष = संतोष ; देव + इंद्र = देवेंद्र ; भानु + उदय भानूदय ।
विसर्ग संधि क्या है?
विसर्ग संधि विसर्ग के साथ स्वर या व्यंजन मेल से जो विकार होता है उसे विसर्ग संधि कहते है। दूसरे शब्दों में- स्वर और व्यंजन के मेल से विसर्ग में जो विसर्ग होता है उसे विसर्ग संधि कहते है। हम ऐसे भी कह सकते हैं- विसर्ग ( : ) के साथ जब किसी स्वर अथवा व्यंजन का मेल होता है तो उसे विसर्ग संधि कहते हैं।
दीर्घ संधि क्या होती है?
ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ के बाद ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, आ आए तो ये आपस में मिलकर क्रमशः दीर्घ आ, ई, ऊ हो जाते हैं, इसी कारण इस संधि को दीर्घ संधि कहते हैं; जैसे संग्रह + आलय संग्रहालय, महा + 22 आत्मा = महात्मा ।
आशा करते है दोस्तो आपको हमारा लेख Sandhi in Sanskrit (संस्कृत सन्धि) पसन्द आया होगा अगर आप हमारे द्वारा दी हुई जानकारी पर अपना कोई सुझाव देना चाहते है तो कॉमेंट के माध्यम से सम्पर्क कर सकते है। धन्यवाद..