Operant Conditioning theory | क्रिया प्रसूत अनुबंधन का सिद्धान्त के जनक बी. एफ. स्किनर है ।
इस सिद्धान्त को साधनात्मक अनुबन्धन का सिद्धान्त, नैमेत्तिक अनुबन्धन का सिद्धान्त उत्सर्जित अनुक्रिया का सिद्धान्त ‘R-Type’ अनुबन्धन का सिद्धान्त R-S Theory के नाम से भी जाना जाता है ।
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क्रिया प्रसूत अनुबंधन का सिद्धान्त
Operant Conditioning theory | क्रिया प्रसूत अनुबंधन का सिद्धान्त – 2023
स्किनर ने अपनी पुस्तक ‘द बिहेवियर ऑफ ऑर्गेनिज्म’ (The Behaviour of Organisms, 1938) में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। स्किनर ने व्यवहार के दो प्रकार बताये अनुक्रियात्मक तथा कार्यात्मक । अनुक्रियात्मक व्यवहार के अन्तर्गत ऐसी अनुक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं जो किसी ज्ञात उद्दीपक के कारण उत्पन्न होती हैं।
जबकि कार्यात्मक व्यवहार के अन्तर्गत ऐसी अनुक्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं जो किसी ज्ञात उद्दीपक के कारण नहीं होती, यहाँ अनुक्रियाओं की कुँजी उद्दीपक के हाथ में ना होकर अनुक्रिया द्वारा उत्पन्न परिणामों के पास होती है।
स्किनर के अनुसार सक्रिय अनुबंधन से अभिप्राय एक ऐसी अधिगम प्रक्रिया से है जिसके द्वारा सक्रिय व्यवहार को सुनियोजित पुनर्बलन द्वारा पर्याप्त बल मिल जाने के कारण वांछित रूप से पुनरावृति होती रहती है और सीखने वाला अन्त तक वैसा व्यवहार सीख जाता है जैसा व्यवहार सिखाने वाला उससे चाहता है।
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इस प्रक्रिया में अधिगमकर्ता को पहले कोई ना कोई क्रिया करनी पड़ती है यही अनुक्रिया पुनर्बलन उत्पन्न करने में माध्यम का कार्य करती है। पुनर्बलन प्राप्त होने पर सीखने वाला उसी व्यवहार की पुनरावृत्ति करता है जिसके परिणामस्वरूप उसे पुरस्कार प्राप्त हुआ था।
व्यवहार की यह पुनरावृति उसे फिर पुनर्बलन प्राप्त कराती है और वह फिर अधिक गति से अपने व्यवहार की पुनरावृत्ति करता है और इस प्रकार से अन्त में अधिगमकर्ता वांछित व्यवहार सीख जाता है।
स्किनर द्वारा किया गया प्रयोग
स्किनर ने अपना पहला प्रयोग चूहों पर किया है। दूसरा प्रयोग कबूतर पर स्किनर ने चूहों पर प्रयोग के लिए जिस यंत्र का निर्माण किया उसका नाम था- ‘क्रिया प्रसूत कक्ष’
(स्किनर की मौत के बाद में इसका नाम -स्किनर बॉक्स ) स्किनर ने अपने क्रिया प्रसूत के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा कि प्राणी के द्वारा जो व्यवहार किया जाता है उसके पीछे कोई उद्दीपन हो यह आवश्यक नहीं होता है।
इसी आधार पर स्किनर ने प्राणियों के द्वारा किये जाने वाले व्यवहार को ‘के दो (2) भागों में विभाजित किया है:-
नोट– पावलव तथा स्किनर द्वारा किये गए व्यवहार के अध्ययन में मुख्य अंतर :
उद्दीपन प्रसूत व्यवहार(पॉवलव) (इसमें उद्दीपन का अनुक्रिया से संबंध स्थापित होता है।)
क्रिया प्रसूत व्यवहार। (स्किनर) (इसमें अनुक्रिया का उद्दीपन से संबंध स्थापित होता है।)
स्किनर के सिद्धान्त की व्याख्या
स्किनर अपने सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहता है कि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के अन्तर्गत अधिगमकर्ता को जो भी कुछ सिखाना होता है उसके लिए प्रयोगकर्ता को सर्वप्रथम अपने उद्देश्यों का निर्धारण कर लेना चाहिए तथा उस उद्देश्य तक जाने वाले मार्ग का चयन करते हुए प्रयोग की व्यूह रचना को भी तैयार कर लेना चाहिए।
जब अधिगमकर्ता सीखने के लिए तैयार हो जाता है तथा स्वतंत्र अनुक्रियाओं के माध्यम से जब वह शिक्षण व्यूह रचना में प्रवेश करता है और जब अधिगमकर्त्ता भूलवश गलत मार्ग का चयन करते हुए आगे बढ़ने लगे तब उसे तत्काल ऋणात्मक पुनर्बनल दिया जाना चाहिए।
और जब अधिगमकर्त्ता सही मार्ग का चयन करते हुए उद्देश्य की प्राप्ति करने में समर्थ हो जाए तब उसे तत्काल धनात्मक पुनर्बलन दिया जाना चाहिए।
क्योंकि धनात्मक पुनर्बलन वह साधन होता है जो अधिगमकर्त्ता का वांछित अनुक्रिया के साथ संबंध दृढ़ कर देता है। परिणामस्वरूप अधिगमकर्त्ता व्यर्थ की अनुक्रियाओं को छोड़ते हुए शीघ्र प्रभाव से वांछित अनुक्रिया को दोहरा कर उद्देश्य तक पहुँचना सीख जाता है।
स्किनर के अनुसार पुनर्बलन
पुनर्बलन वह है जिसे प्रदान करने से उस विशिष्ट प्रकार की अनुक्रिया अथवा व्यवहार के पुनःघटित होने की सम्भावना बढ़ जाती है। पुनर्बलन की प्रकृति के आधार पर पुनर्बलन को निम्नलिखित दो प्रकारों में बाँटा जाता है-
- प्राथमिक पुनर्बलन (Primary Reinforcement ) — ये जैविक जन्म से साथ आते है जैसे भूख प्यास काम निंद्रा आदि।
- द्वितीयक पुनर्बलन (Secondary Reinforcement) – ये अर्जित प्रकृति के होते है जैसे पुरस्कार मान-सम्मान, पैसा आदि
इसके आलावा स्किनर ने पुनर्बलन को धनात्मक और ऋणात्मक पुनर्बलन में भी वर्गीकृत किया है।
- धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement) — स्किनर के अनुसार धनात्मक पुनर्बलन से तात्पर्य उन उद्दीपकों से होता है जिनके प्रस्तुत होने पर वांछित अनुक्रिया में व्रद्धि होती है जैसे कि मान सम्मान, प्रशंसा, पुरस्कार, धन दौलत, भोजन पानी आदि
- ऋणात्मक पुनर्बलन (Negative Reinforcement) – स्किनर के अनुसार ऋणात्मक पुनर्बलन से तात्पर्य उन उद्दीपकों से होता है जिनके हटाये जाने से वांछित अनुक्रिया की प्रायिकता में वृद्धि होती है। जैसे:- तेज प्रकाश, तीव्र गर्मी, अत्यधिक सर्दी विद्युताघात आदि।
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Operant Conditioning theory | क्रिया प्रसूत अनुबंधन का सिद्धान्त – 2023
Operant Conditioning Theory in english