इस आर्टिकल में आपको आनुवंशिक का गुण सूत्र सिद्धान्त, गुण सूत्र तथा जीन, लिंग गुण सूत्र की खोज, लिंग निर्धारण, जीन सहलग्नता तथा विनिमय, उतपरिवर्तन, परिभाषा और प्रकार बताएंगे ।
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सटन (Sutton) ने 1902 में वंशगति का गुणसूत्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत किया था और बाल्डयर ने 1998 में केन्द्रक में पायी जाने वाली सूत्रनुमा रचनाओ को गुणसूत्र का नाम दिया था ।
आनुवंशिक का गुणसूत्र सिद्धान्त ( The Chromosomal Theory of Inheritance )
मेण्डल के समय तक वैज्ञानिकों को जीव कोशिकाओं की रचना का बहुत कम ज्ञान था। नायगेली (Naegeli) ने सन् 1842 हे जीव-कोशिकाओं के केन्द्रक में कुछ सूत्रनुमा रचनाएँ देखीं, परन्तु इनकी उपस्थिति की पुष्टि रूसो (Russow, 1872) तथा बयानी (Balbiani, 1876) ने की। वाल्डेयर (Waldayer) ने 1888 में इन्हें गुणसूत्रों (Chromosomes ) का नाम दिया।
बाद में पता चला कि गुणसूत्र माप, आकृति एवं रचना में अनेक प्रकार के होते हैं, परन्तु किसी एक जीव-जाति (species) के सारे स्यों की सभी देहकोशिकाओं में निश्चित माप, आकृति एवं रचना वाले गुणसूत्रों की एक निश्चित संख्या का समूह होता है।
बोवेरी (Boveri) एवं सटन (Sutton) ने 1902 में युग्मक निर्माण व निषेचन के समय गुणसूत्रों के व्यवहार पर खोज की मेण्डल के आनुवंशिक कारकों (Factors) के साथ निम्नलिखित सम्बन्ध पाया जाता है
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- (1) द्विगुणसित (Diploid) कोशिकाओं में गुणसूत्र जोड़ों के रूप में होते हैं।
- (2) जिस प्रकार युग्मकों के निर्माण के समय कारक अलग-अलग होते हैं, उसी प्रकार गुणसूत्र भी अलग-अलग होते हैं।
- (3) कारक के समान ही प्रत्येक युग्मक में समजात गुणसूत्रों (Homologous Chromosomes) के प्रत्येक जोड़े में से एक गुण सूत्र आता है ।
- (4) निषेचन के पश्चात् कारकों की तरह ही गुणसूत्र पुनः जोड़ों (Pairs) में हो जाते हैं।
इससे वैज्ञानिकों की यह परिकल्पना बनी की सम्भवतः गुणसूत्र (chromosome) ही मेण्डल के कारकों (Factors) का काम कते हैं। इसी आधार पर सटन (Sutton) ने 1902 में वंशागति का गुणसूत्रीय सिद्धान्त (Chromosomal Theory of eritance) प्रस्तुत किया। इससे यह निष्कर्ष निकला कि गुणसूत्र ही आनुवंशिक लक्षणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले जाते है ।
गुणसूत्र तथा जीन ( Chromosomes and Genes )
गुणसूत्र – गुणसूत्र क्रोमेटिन के उन धागों को कहते है जो प्रत्येक कोशिका में विभाजन के कारण सिकुड़कर मोटे तथा छोटे-छोटे धागे रूप में दिखाई देते हैं। प्रत्येक जीव की कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या तथा आकृति निश्चित होती है ।
गुणसूत्रों के कार्य – गुणसूत्रों के DNA में आनुवंशिक लक्षणों की रूपरेखा संकेतों (Codes) के रूप में निहित रहती है। इन्हीं संकेतों के आधार पर संदेशवाहक RNA का संश्लेषण होता है, जिससे प्रोटीन के अणुओं का निर्माण होता है। यहाँ प्रोटीन, विकर (Enzymes) के रूप में शरीर की संरचना एवं क्रियाशीलता में महत्त्वपूर्ण भाग लेती है। गुणसूत्रों के प्रतिकृतिकरण से संतति गुणसूत्र बनते हैं, जो कि कोशिकाओं में पहुंचकर नये जीवों का निर्माण करते हैं।
जीन –
प्रत्येक गुणसूत्र में जीन (Genes) पाये जाते हैं, जो आनुवंशिक लक्षणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाने का कार्य करते हैं।
जीन एक आनुवंशिक इकाई है। DNA के एक खण्ड को जिसमें किसी लक्षण का आनुवंशिक संकेत (Genetic Code) निहित होता है, जीन (Gene) कहते हैं। जीन में अपनी प्रतिकृति बनाने की क्षमता होती है। जीन में जीवधारियों के शरीर में होने वाली विभिन्न क्रियाओं को आरम्भ एवं नियन्त्रित करने की क्षमता होती है।
सटन (Sutton), मार्गन, मुलर, वॉटसन एवं क्रिक तथा विल्किन्स के अनुसार-
- (i) जीन, गुणसूत्रों पर स्थित होते हैं।
- (ii) जीन, जीवों के भौतिक एवं शरीर क्रियात्मक लक्षणों को निर्धारित करते हैं।
- (iii) जीन पीढ़ी दर पीढ़ी माता-पिता से सन्तान में वंशागत होते हैं।
- (iv) प्रत्येक जीन एक विशिष्ट गुणसूत्र में विशिष्ट स्थान पर होता है।
- (v) प्रत्येक जौन एक विशेष प्रोटीन का संश्लेषण करता है, जो विकर (Enzyme) का कार्य करता है।
लिंग गुणसूत्र की खोज ( Discovery Of Sex Chromosome )
प्राचीन काल से वैज्ञानिक उस प्रक्रिया की खोज में लगे रहे है जिसके कारण एकलिंगी जीवों में कोई सन्तान नर (Male) कोई सन्तान मादा (Female) में विकसित होती है। गत् सदी तक आम धारणा यह रही कि गर्भ के समय चन्द्रमा की स्थिति, हवा
की दिशा, भ्रूण (Embryo) के पालन-पोषण, ताप आदि की दशाएँ ही सन्तान के लिंग (Sex) का निर्धारण (Determination) करती हैं। सन् 1900 में मेण्डलवाद को पुनः खोज के शीघ्र बाद, हैकिंग, मैक्लंग तथा विल्सन (Henking, MeClung, Wilson)
आदि वैज्ञानिकों ने सन्तानों के लिंग निर्धारण के वैज्ञानिक आधार का पता लगाया। मैक्लंग ने 1902 में “लिंग निर्धारण का गुणसूत्रीवाद (Chromosomal Theory of Sex Determination)” प्रस्तुत किया। इसके अनुसार अन्य वंशागत लक्षणों के समान लिंग का निर्धारण भी गुणसूत्रों द्वारा होता है। अधिकांश जन्तुओं में दो प्रकार के गुणसूत्र मिलते हैं—समजात (Autosomes} तथा विषमजात (Heterosomes ) । समजात में गुणसूत्रों का जोड़ा समान तथा विषमजात में असमान होता है। विषमजात (Heterosomes) को ही लिंग गुणसूत्र (Sex Chromosomes) कहते हैं। इन्हीं गुणसूत्रों के द्वारा ही सन्तानों में लिंग का निर्धारण होता है ।
लिंग निर्धारण ( Sex Determination )
एकलिंगी (Unisexual) तथा द्विलिंगी (Bisexual)। एकलिंगी जीवों में जैसे मनुष्य में भी नर तथा मादा जनन अंग (reproductive organs) अलग-अलग जन्तुओं में होते हैं तथा नर एवं मादा की शारीरिक संरचना में भी अन्तर होता है। इसे लिंग भेद (sexual dimorphism) कहा जाता है।
उत्परिवर्तन के प्रकार ( Types Of Mutations )
गो-डी-बीज ने बहुत ही स्पष्ट और अकस्मात् उत्पन्न होने वाली विभिन्नताओं को उत्परिवर्तन नाम दिया था, किन्तु आधुनिक जीव विज्ञानी सम्पूर्ण गुणसूत्र और गुणसूत्र में स्थित जीन्स (Genes) में छोटे-छोटे परिवर्तन को उत्परिवर्तन कहते हैं। अतः उत्परिवर्तन के दो प्रकार होते हैं
(1) जीनी उत्परिवर्तन (Genetic Mutations) तथा (2) गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन (Chromosomal Mutations)
जीनी उत्परिवर्तन (Genetic Mutations) यह कारणों से होता है
- जीन की व्यवस्था क्रम में परिवर्तन के कारण
- जींन के अंदर उपस्थित न्यूक्लियोटाइड की व्यवस्था क्रम में परिवर्तन के कारण
गुणसूत्री उत्परिवर्तन (Chromosomal Mutations) जीनी उत्परिवर्तन कोशिका के जीवन में किसी क्षण हो सकते हैं। इनके विपरीत गुणसूत्रों उत्परिवर्तन सदैव जनन प्रन्थियों को कोशिकाओं में शुक्राणु अथवा अण्ड कोशिका के निर्माण के समय अर्धसूत्री कोशिका विभाजन (Reduction Meiotic Division) को व्यवस्था में होते हैं। इन उत्परिवर्तनों द्वारा गुणसूत्रों में होने वाले परिवर्तन दिखाई देते हैं जबकि जीनी उत्परिवर्तनों द्वारा होने वाले परिवर्तन दिखाई नहीं देते हैं।
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