पर्यावरण से हमारा तात्पर्य पृथ्वी पर पाये जाने वाले समस्त प्राकृतिक संसाधन सजीव एवं निर्जीव तत्त्वों से है। मनुष्य जिस स्थान पर रहता है, वहाँ की वायु, जल तथा मिट्टी का प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है।
इतना ही नहीं उसके आस-पास के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी भी इसके जीवन को प्रभावित करते हैं। सन्तुलित पर्यावरण समस्त जीवों के अस्तित्व का आधार है।
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पर्यावरण संरक्षण क्या है | अर्थ, परिभाषा, महत्व, पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार और प्रभाव – Free Notes 2022-23
लेकिन आज औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण एवं बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के प्रयास में व्यक्तिगत रूप से एवं सामुद्रिक रूप से पर्यावरण के अविवेकपूर्ण दोहन एवं विध्वंस से पर्यावरण असन्तुलित हो रहा है।
यदि समय रहते उस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो जीव मात्र का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
पर्यावरण असन्तुलन के कारण प्राकृतिक संकट, वायु प्रदूषण, भू-क्षरण, बाढ़, सूखा, जल-प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ऋतुओं में अन्तर एवं संस्कृति के संकट के रूप में वन-विनाश, जनसंख्या वृद्धि, निर्धनता, गन्दी बस्तियाँ, ध्वनि-प्रदूषण, अपराध, घातक रोग, ऊर्जा संकट के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
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पर्यावरण का अर्थ
पर्यावरण शब्द दो शब्दों को मिलाकर बना है—परि + आवरण ‘परि’ शब्द का अर्थ है ‘चारों ओर और ‘आवरण’ शब्द का अर्थ है ‘ढके रहने वाला‘।
इस प्रकार पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ उन दशाओं से है जो हमें चारों ओर से ढके हुए हैं। इसमें भौतिक और अभौतिक दशाएँ व वस्तुएँ सभी सम्मिलित होती है।
किसी वस्तु, पदार्थ या व्यक्ति के चारों ओर पाया जाने वाला पारिस्थितिक तन्त्र ही पर्यावरण है, जिसमें उन सभी परिस्थितियों, प्रभावों एवं शक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जो भौतिक अथवा रासायनिक रूप में जीवन को प्रभावित करते हैं।
पर्यावरण की परिभाषा बहुत से वैज्ञानिकों ने अलग अलग स्पष्ट की है लेकिन हम आपको कुछ प्रमुख परिभाषा बतायेंगे
पर्यावरण की परिभाषा
रॉस के अनुसार, "पर्यावरण हमें प्रभावित करने वाली कोई भी बाहरी शक्ति है।" रॉस की परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी बाहरी वस्तु, चाहे वह सामाजिक हो या सांस्कृतिक हो या भौगोलिक, जिसका हम पर प्रभाव पड़ता हो, पर्यावरण कहलाती है।
जिस्बर्ट के अनुसार, “पर्यावरण वह कुछ भी है जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरे हुए है तथा उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।"
पर्यावरण संरक्षण क्या है | अर्थ, परिभाषा, महत्व, पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार और प्रभाव - Free Notes 2022-23
पर्यावरण बाह्य होता है , पर्यावरण भौतिक और अभौतिक दोनों प्रकार का हो सकता है । पर्यावरण मनुष्य को अनेक तरीकों से प्रभावित करता है ।
किसी भी जीवित प्राणी को चारों ओर से घेरने बाली कोई भी वस्तु, परिस्थिति या पदार्थ उसका पर्यावरण है ।
पर्यावरण के भेद या अंग
पर्यावरण को हम दो भागों में विभाजित कर सकते है
1. प्राकृतिक पर्यावरण– इसके अन्तर्गत वे प्राकृतिक शक्तियाँ, पदार्थ या वस्तुएँ सम्मिलित की जाती हैं जो मानवीय नियन्त्रण से परे हैं।
वायु, भूमि, तापमान, वर्षा, पशु-पक्षी, वृक्ष, समुद्र, नदी, झीलें तथा इनमें रहने वाले जीव-जन्तु, पर्वत आदि प्राकृतिक पर्यावरण के अंग हैं, क्योंकि ये सभी प्रकृति की देन हैं।
2. सामाजिक या मानव-निर्मित पर्यावरण इस पर्यावरण के अन्तर्गत हमारे उन सामाजिक जीवन से सम्बन्धित समूहों, समितियों, संस्थाओं, संगठनों और सामाजिक नियमों को लिया जाता है जो हमें घेरे रहते हैं।
सड़कें, स्कूल, बाजार, कार्यालय, फैक्ट्री, बाग, मेले-तमाशे आदि सामाजिक पर्यावरण के अन्तर्गत आते हैं। चूँकि इन्हें मनुष्य ने स्वयं बनाया या पैदा किया है, इसलिए इन्हें सामाजिक अर्थात् मानव-निर्मित पर्यावरण कहते हैं।
पर्यावरण का महत्त्व क्या है ?
पर्यावरण का हमारे जीवन मे बहुत महत्व है । हमारे जीवन मे जो भी हमारे आस पास है हम उसको प्रभावित करते है और उससे हम भी प्रभावित होते है ।
1. व्यवसाय में पर्यावरण का महत्त्व – रोजमर्रा में व्यक्ति की सभी क्रियाएं पर्यावरण से प्रभावित होती है । व्यक्ति उसी प्रकार से क्रिया कलाप करता है जिस प्रकार के पर्यावरण में वो रहता है ।
पर्यावरण का व्यवसाय के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि मनुष्य पर्यावरण के हिसाब से ही अपने व्यवसाय का चुनाव करता है उदाहरण के लिये जैसे अगर कोई व्यक्ति किसी ठंडे प्रदेश में रहेगा तो वह उसी के हिसाब से व्यवसाय करेगा।
2. आवश्यकताओं की पूर्ति – पर्यावरण के द्वारा मनुष्य की सभी आवश्यक ताओं की पूर्ति होती है जैसे- भोजन, कपड़ा, मकान आदि।
3.पर्यावरण जीवन का आधार है – प्राकृतिक पर्यावरण अत्यन्त व्यापक तथा बलशाली है। प्रकृतिक पर्यावरण, जिसके अन्तर्गत जल, वायु, भूमि, तापमान, वर्षा, पशु-पक्षी, वृक्ष आदि आते हैं।
मानव-जीवन को सुरक्षित रखने के लिए अति आवश्यक है। इस संसार की कल्पना बिना पानी के नहीं की जा सकती, न ही किसी जीव वनस्पति की। ऑक्सीजन के बाद पानी जीवन की रक्षा के लिए सबसे आवश्यक है। जब से सृष्टि है, पानी है। इसी प्रकार जीव और वनस्पति के लिए वायु सबसे आवश्यक है।
बिना हवा के व्यक्ति कुछ मिनट ही जीवित रह सकता है। जलवायु की भाँति ही वर्षा, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि मानव-जीवन के लिए उपयोगी हैं, जो प्राकृतिक पर्यावरण के अंग हैं।
पर्यावरण प्रदूषण क्या है ?
हम जानते हैं कि मानव का जीवन पर्यावरण पर निर्भर है। यद्यपि पर्यावरण में सन्तुलन स्वतः ही बना रहता है तथा प्रकृति भी स्वाभाविक शक्तियों द्वारा इसे नियन्त्रित करती रहती है, फिर भी इस प्राकृतिक पर्यावरण के नियन्त्रण की एक सीमा है।
जब मनुष्य अपने भौगोलिक उददेश्यों की पूर्ति हेतु पर्यावरण और उसके प्राकृतिक नियन्त्रण के प्रति असावधान हो जाता है और पर्यावरण में उपस्थित आवश्यक घटकों का अनुपात असन्तुलित हो जाता है तब इसे पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं।
दूसरे शब्दों में, जल, वायु एवं मिट्टी के भौतिक तथा जैविक गुणों में होने वाले ऐसे परिवर्तन, जो मनुष्य तथा उसके महत्त्व के अन्य जीवों के जीवन एवं रहन-सहन के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं प्रदूषण कहलाते हैं।
आज प्राकृतिक पर्यावरण पर्याप्त रूप से प्रदूषित होता जा रहा है, जो मानव समाज एवं अन्य जीवों पर अपना भंयकर प्रभाव डाल रहा है। भारत में भी पर्यावरण प्रदूषण की समस्या विकट रूप लेती जा रही है।
पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार
पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार निम्नलिखित है —
वायु प्रदूषण
वायुमण्डल में विभिन्न गैसों का सम्मिश्रण एक सन्तुलित अवस्था में है। जब इसमें दूषित गैसों जैसे कार्बन डाइ ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रोजन आदि; की वृद्धि हो जाती है, जिससे वायु प्रदूषित हो जाती है तब इसे वायु प्रदूषण कहते हैं।
दूसरे शब्दों में, वायु में विजातीय तत्त्वों की उपस्थिति, चाहे वह गैसीय हो या ठोस रूप में या दोनों के मिश्रण रूप में, जो कि मानव के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए हानिकारक हो, वायु प्रदूषण कहलाता है।
वायु प्रदूषण के कारण – वायु में प्रदूषण मुख्य रूप से धूल-कण, धुआँ, कार्बन-कण, सल्फर डाइ-ऑक्साइड,कुहासा, सीसा, कैडमियम आदि घातक पदार्थों से होता है।
ये सभी उद्योगों एवं परिवहन के माध्यम से वायुमण्डल में फैलते हैं। वायु में प्रदूषण मुख्य रूप से निम्नलिखित कारणों से होता है
- नगरीकरण
- औधोगिकरण
- परिवहन
- वनों की कटाई
- प्लास्टिल
- AC
- फ्रिज
- डिस्टेम्पर
- कीटनाशक
- रासायनिक उर्वरक
- जहरीली गैस
- गंदगी आदि
वायु प्रदूषण रोकने के उपाय –
1. भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ नगरीकरण व औद्योगीकरण दिनों-दिन बढ़ रहा है, वायु-प्रदूषण पर नियन्त्रण पाने के लिए वायुमण्डल की जाँच पहला आवश्यक कार्य है, जिससे कि प्रदूषण के संकेन्द्रण को सीमा से अधिक बढ़ने से रोका जा सके।
2.धुआँ उगलने वाले वाहनों की वृद्धि को रोका जाए तथा वाहनों से उत्पन्न प्रदूषण पर कानून बनाकर नियन्त्रण किया जाए। मोटर परिवहन ऐक्ट को सख्ती से लागू किया जाए।
3.धुआँ उगलने वाली सरकारी, गैर-सरकारी गाड़ियों के लाइसेन्स तुरन्त जब्त कर लिये जाएँ और उन्हें शिकायत दूर करने और पूरी जाँच के बाद ही दोबारा सड़कों पर चलने के प्रमाण-पत्र दिये जाएँ।
4.वायु प्रदूषण से उत्पन्न संकट के बारे में जनमानस को जाग्रत किया जाना चाहिए। उन्हें यह समझाना चाहिए कि वे वाहनों का प्रयोग केवल सुख-सुविधा की दृष्टि से ही न करें। छात्रों के पाठ्यक्रम में पर्यावरण प्रदूषण को एक विषय के रूप में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
5. नगरों के मध्य कूड़ा-करकट, मल, व्यर्थ पदार्थ, औद्योगिक अवशिष्ट व अपमार्जक आदि न डाले जाएँ।
6. कृषि में रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशक दवाइयों का उपयोग आवश्यकतानुसार सीमित मात्रा में ही किया जाना चाहिए।
7. पर्यावरण में सन्तुलन बनाये रखने एवं वायु प्रदूषण को दूर करने के लिए वन क्षेत्रफल में वृद्धि की जाए तथा सामाजिक वानिकी को महत्त्व दिया जाए। इसके साथ वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित कटाई पर रोक लगायी जाए।
8. वायु को शुद्ध रखने में वृक्षों का बहुत महत्त्व होता है। वृक्ष वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन डाइ ऑक्साइड लेकर उसे प्रकाश की सहायता से ऑक्सीजन में बदल देते हैं।
9. वायु को प्रदूषित करने वाले उद्योगों को नगरों के मध्य में स्थापित करने की अनुमति न दी जाए। बड़े कल-कारखाने नगरों से दूर स्थापित कराये जाएँ तथा उनसे प्रदूषण मुक्ति सम्बन्धी सभी आवश्यक शर्तों का कठोरता से पालन कराया जाए।
10. कल-कारखानों की धुआँ उगलने वाली चिमनियों पर प्रदूषण रोधक यन्त्र (फिल्टर) लगाना अनिवार्य किया जाए।
जल प्रदूषण
जल में उपस्थित लवण,जैविक तत्व और खनिज के बीच जब तक उचित सन्तुलन बना रहता है तब तक जल शुद्ध रहता है । लेकिन जब जल में खनिज लवणों ओर जैविक तत्वो का असन्तुलन होता है तो जल दूषित हो जाता है और यही जल प्रदूषण का प्रमुख कारण बनता है ।
जल में कूड़ा करकट मल मूत्र फेकने के कारण जल प्रदूषण होता है और इन्ही कारणों से अनेक प्रकार की बीमारियों को जन्म दिया जाता है
जल प्रदूषण के कारण –
- औधोगिकरण जल प्रदूषण का प्रमुख कारण है ।
- चमड़े के कारखाने
- चीनी मील
- नगरीकरण
- अपशिष्ट पदार्थो का जल में फेकाव
- जल में डीजल पेट्रोल बाले वाहनों के कारण
- मृत्यु के बाद जानवरों का जल में फेकना
- मृत्यु के बाद मनुष्यों का जल में अंतिम संस्कार करना
- उर्वकों का खेती में ज्यादा उपयोग
- शौचालयों का नदियों में फेकाव
जल प्रदूषण रोकने के उपाय –
1.शौचालय गड्ढे खोदकर बनाये जाएँ, मल को नदियों, तालाबों में न बहाया जाए वरन् उसे खाद में परिवर्तित कर लिया जाए। इससे बेहतर खाद मिलेगी और जल भी प्रदूषण से बचेगा।
2. आम नागरिकों को इस समस्या के प्रति जाग्रत किया जाना चाहिए और उनकी सक्रिय साझेदारी भी प्राप्त की जानी चाहिए।
3. जल प्रदूषण रोकने के लिए, उसकी चौकसी एवं निगरानी के लिए समितियाँ गठित हों, जिसमें सामाजिक कार्यकर्त्ता, सरकारी अधिकारी, निरोधक समितियों के सदस्य तथा प्रदूषित क्षेत्रों के नागरिक होने चाहिए।
4. कानून बनाकर उद्योगपतियों को बाध्य किया जाना चाहिए कि वे कारखानों के दूषित शोधन-जल को संयन्त्रों से शुद्ध करके ही नदी में डालें।
5. नदियों के किनारे स्थित कारखानों को दूर स्थापित किया जाना चाहिए।
6. जिन फसलों पर कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है, उन खेतों से बहने वाले जल को पीने वाले जलाशयों व नदियों में नहीं गिराना चाहिए।
7. खेतों में रासायनिक खादों के साथ देशी खाद के प्रयोग को भी बढ़ाना चाहिए।
8. सीवर का गन्दा मल-मूत्र वाला जल शहर से बाहर शुद्ध या दोषरहित करके नदियों में डालना चाहिए।
9. कूड़ा-करकट; तालाबों, जलाशयों या नदियों में न डालकर गाँव या शहर से बाहर गड्ढे में ढक देना चाहिए।
10. जिन जलाशयों या तालाबों का पानी मनुष्य या जानवर पीते हों, उनके आसपास या उनमें कपड़े या गन्दी वस्तु नहीं धोनी चाहिए।
ध्वनि प्रदूषण
वायुमण्डल में परिवहन, कल-कारखाने, रेडियो, लाउडस्पीकर, ग्रामोफोन आदि द्वारा जो शोर उत्पन्न होता है, उसे ध्वनि-प्रदूषण कहते हैं। दूसरे शब्दों में, “अनावश्यक आवाज ही शोर कहलाती है ।
एक निश्चित मात्रा से अधिक शोर होना ही ‘ध्वनि प्रदूषण’ या ‘श्रव्य-प्रदूषण’ कहलाता है।”
ध्वनि प्रदुषण के कारण –
- ध्वनि-प्रदूषण परिवहन वाहनों (बसों, ट्रकों, रेलों, वायुयान) आदि के द्वारा होता है।
- कारखाने ध्वनि प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं। कारखानों की मशीनों की खटपट, वाहनों के हॉर्न, निर्माण कार्यों में होने वाली तोड़-फोड़ आदि से ध्वनि-प्रदूषण होता है।
- ध्वनि विस्तारक यन्त्रों का प्रयोग भी ध्वनि प्रदूषण को फैलाता है। लाउडस्पीकर, पटाखे,ट्रांजिस्टर, बाजे-गाजे की धुनें आदि भी ध्वनि-प्रदूषण करती हैं।
- रेडियो, लाउडस्पीकर, ग्रामोफोन एवं टेपरिकॉर्डर आदि से भी ध्वनि-प्रदूषण होता है।
ध्वनि प्रदूषण को रोकने के उपाय –
1. वायुयानों, रेलों, बसों, कारों, स्कूटरों एवं मोटर साइकिलों आदि में शोर-शमन-यन्त्र (साइलेंसर) ठीक काम करते हैं या नहीं, इसकी पूरी देख-रेख की जानी चाहिए। जहाँ ये ठीक काम न का रहे हों, वहाँ इनका चलना तुरन्त बन्द कराया जाना चाहिए।
2. विदेशों की भाँति व्यर्थ एवं अनावश्यक रूप से हॉर्न बजाने को रोका जाना चाहिए। अनिवार्य स्थिति में ही हॉर्न बजाने की अनुमति हो। शहरों में खामोश क्षेत्र घोषित किये जाएँ।
3. कल-कारखाने, रेलवे स्टेशन आदि आवासीय क्षेत्रों से बाहर स्थापित कराये जाएँ तथा ध्वनि उत्पन्न करने वाली मशीनों के प्रयोग को सीमित किया जाए। जिन मशीनों का शोर कम न हो सके, वहाँ के श्रमिकों को इयर-प्लग्स तथा हेलमेट का प्रयोग अनिवार्य रूप से कराया जाए।
4. वाद्य-यन्त्रों, लाउडस्पीकरों आदि के प्रयोग तथा उनकी तीव्र ध्वनि को नियन्त्रित एवं प्रतिबन्धित किया जाय
5. शोर का स्तर निर्धारित करने हेतु नियम बनाकर लागू किये जाएँ तथा शोर वाले स्थानों पर ध्वनि-शोषक यन्त्र लगाये जाएँ।
रेडियोधर्मी प्रदूषण
रेडियोधर्मी पदार्थों की क्रियाशीलता द्वारा हुए प्रदूषण को ‘रेडियोधर्मी प्रदूषण’ कहा जाता है। 1982 ई० में डॉ० एन० जे० मुलर ने अपने प्रयोगों से सिद्ध किया कि रेडियोधर्मी तत्त्व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं।
इनकी किरणें जीवों में आनुवंशिक परिवर्तन कर देती हैं, जिससे अंग विकृत हो जाते हैं। तथा अनेक रोग हो जाते हैं।
रेडियोधर्मी किरणें एटम बम के विस्फोट से पैदा होती हैं। एक्स-रे कराने की स्थिति में भी रोगी को कुछ क्षणों के लिए इन किरणों से गुजरना होता है ।
लेकिन एक्स-रे की ये किरणें विशिष्ट परिस्थितियों के अतिरिक्त रोगियों के लिए अधिक हानिकारक नहीं होतीं ।
रेडियोधर्मी प्रदूषण से बचने के लिए यह आवश्यक है कि परमाणु बम के शान्तिकालीन व बुद्धकालीन विस्फोटों को एकदम प्रतिबन्धित कर दिया जाए।
खाद्य प्रदूषण
जब कोई खाद्य-पदार्थ किसी विषैले पदार्थ के सम्पर्क में आता है तो प्रदूषित हो जाता है। ऐसे प्रदूषित पदार्थों को खाने से मनुष्यों को रोग हो जाता है।
खाद्य प्रदूषण के कारण
- परिवहन व भण्डारण के दौरान भी खाद्य-पदार्थ संदूषित हो जाते हैं।
- ताँबे व पीतल के बर्तनों में खाना पकाने व रखने के कारण भी खाद्य-पदार्थ विषाक्त हो जाते हैं।
- खरपतवार के सरसों के समान बीज भी खाद्य पदार्थों में मिल जाते हैं जो अनेक रोग पैदा करते हैं।
- चावल नम वातावरण में भण्डारित करने से दूषित हो जाता है।
- हल्दी, घी, मिर्च, शहद आदि पदार्थ मिलावट से भी संदूषित हो जाते हैं।
खाद्य-प्रदूषण से बचने के उपाय
(1) ताँबे तथा पीतल के बर्तनों में घी, दही व अम्ल वाले पदार्थ न पकाए जाएँ और न ही रखे जाएँ।
(2) श्यामल काँटा (खरपतवार) के पौधों को पूर्णतः नष्ट कर दिया जाए जिससे उसके बीज अनाज में न मिल सकें।
(3) खेतों में कीटनाशक पदार्थों का प्रयोग कम-से-कम किया जाए। (4) खेसरी दाल के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया जाए।
(5) फलों व सब्जियों को रासायनिक पदार्थों के माध्यम से न पकाया जाए।
पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव
पर्यावरण के संसाधन या घटक जितने स्वच्छ व निर्मल होंगे, उतना ही हमारा शरीर और मन स्वच्छ तथा स्वस्थ होगा। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा था कि, “प्रकृति हमारी माँ है, जो अपने बच्चों को अपना सभी कुछ अर्पण कर देती है।’
पर्यावरण प्रदूषण मानव-जीवन के लिए सबसे बड़े खतरे का संकेत है। बढ़ते पर्यावरणीय प्रदूषण के चलते पृथ्वी के तापमान में बढ़ोत्तरी जारी है। तापमान में हुई वृद्धि से न केवल फसलों को हानि हो रही है, बल्कि प्राकृतिक आपदाएँ भी बढ़ रही हैं।
गर्म सागरों से उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा के वातावरण में मिलने से तेज आँधियाँ और बवण्डर पैदा हुए। जीवाश्म ईंधन के कारण वायुमण्डल में उपस्थित ओजोन परत के हास के कारण पृथ्वी पर सूर्य की पराबैगनी किरणों का दुष्प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
इसीलिए मार्क्स ने कहा था कि “प्रकृति के प्रति मानव के शत्रुतापूर्ण व्यवहार से ही पर्यावरण का ह्रास होता है। यदि पर्यावरण के साथ सहयोग व संयम का व्यवहार किया जाए तो छोटी-मोटी क्षति को तो प्रकृति स्वयं ही पूरा कर लेती है।”
पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता
आज के औद्योगिक एवं आर्थिक प्रगति के युग में पर्यावरण संरक्षण की अत्यधिक आवश्यकता है। यदि मनुष्य चाहता है कि वह तीव्र गति से आर्थिक विकास करे तो उसे यह भी ध्यान रखना होगा कि जिस पर्यावरण के माध्यम से वह अपनी प्रगति या विकास करना चाहता है उसे संरक्षण प्रदान करे।
मनुष्य अपनी बुद्धि तथा कौशल के बल पर प्राकृतिक पर्यावरण को अपनी सुख-सुविधा की दृष्टि से परिवर्तित करके सामाजिक पर्यावरण के स्वरूप को निखारने तथा बढ़ाने का प्रयास करता है।
वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित कटाई करना, नदियों का प्रवाह नियन्त्रित करना, बादलों में रसायनों को फैलाकर वर्षा करा लेना, समुद्रों में परमाणु अस्त्रों का परीक्षण आदि अनेक पर्यावरणीय हस्तक्षेप के उदाहरण हैं।
इस पर्यावरणीय हस्तक्षेप को मनुष्य अपना आर्थिक विकास एवं प्रकृति के ऊपर विजय मानकर प्रसन्न होता है। मनुष्य यह मानकर चलता है कि पर्यावरण के साथ जितना हस्तक्षेप किया जाएगा उतना ही आर्थिक विकास सम्भव है।
दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम दोहन करके, उत्पादन की मात्रा बढ़ाकर, राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करके वह अपने रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाना चाहता है और यह मानता है। कि इस प्रकार ही उसका विकास सम्भव है।
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