दोस्तों आज हम मनोविज्ञान के सबसे महत्वपूर्ण Topic अधिगम के बारे में बतायेंगे क्योंकि अधिगम का अर्थ ,प्रकार,शिक्षण विधियाँ ओर सिद्धान्त को समझे बिना हम मनोविज्ञान को नही समझ सकते
मनोविज्ञान का अर्थ (Meaning or Learning)
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सामान्य अर्थ में अधिगम या सीखना व्यवहार में परिवर्तन को कहा जाता है लेकिन व्यवहार में हुए सभी परिवर्तनों को अधिगम नहीं कहा जाता। व्यवहार में परिवर्तन थकान, दवा खाने, बीमारी, परिपक्वन (maturation) आदि से भी हो सकता है परन्तु ऐसे परिवर्तनों को अधिगम नहीं कहा जाता है।
मनोविज्ञान में सीखने से तात्पर्य सिर्फ उन्हीं परिवर्तनों से होता है जो अभ्यास (practice) या अनुभव (experience) के कारण होते हैं तथा सामान्यतः ऐसे परिवर्तनों का उद्देश्य व्यक्ति को अपने वातावरण में समायोजन करने में मदद करने से होता है। अधिगम के अर्थं को और स्पष्ट रूप से समझने के लिए अधिगम की परिभाषाओं को जानना आवश्यक है-
अधिगम का अर्थ,प्रकार,सीखने की विधियाँ और अधिगम के सिद्धांत (Meaning,Types,Methods and Theories of Learning)
अधिगम की परिभाषा (Defination Of Learning)
गेट्स एवं अन्य (Gates and Others) – “अनुभव के द्वारा व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को सीखना कहते हैं। ” स्किनर (Skinner) – “सीखना, व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।
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क्रो व को (Crow and Crow) – सीखना-आदतें, ज्ञान और अभिवृत्तियों का अर्जन हैं।”
वुडवथ (Woodworth) – “नवीन ज्ञान और नवीन प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया सीखने की प्रक्रिया है ।”
क्रानबैक (Cnonback) – “सीखना, अनुभव के परिणामस्वरूप व्यवहार में परिवर्तन द्वारा व्यक्त होता है।”
थॉर्नडाइक (Thorndike) – “उपयुक्त अनुक्रिया के चयन तथा उसे उत्तेजना से जोड़ने को अधिगम कहते हैं।”
पील (Peel) – “अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुकरण में होता है।”
कॉलविन (Colwin) – “पूर्व निर्मित व्यवहार में अनुभव द्वारा परिवर्तन “ही अधिगम है।”
किंग्स्ले एवं गैरी (Kingsley & Garry) – ” अभ्यास अथवा प्रशिक्षण के फलस्वरूप नवीन तरीके से व्यवहार करने अथवा व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया को सीखना कहते हैं।”
मर्सेल (Mursell) – “सीखने की असफलताओं का कारण समझनेकी असफलताएँ हैं।”https://mycoaching.in/adhigam-ke-siddhant
अधिगम की विशेषताएँ (Characteristics of Learning)–
अधिगम सीखने की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- अधिगम जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।
- अधिगम एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है।
- अधिगम उद्देश्यपूर्ण व लक्ष्य निर्देशित होता है।
- अर्जित व्यवहार की प्रकृति अपेक्षाकृत स्थायी होती है। अधिगम, अनुभवों का संगठन है।
- सीखना अनुकूलन है।
- अधिगम वातावरण एवं क्रियाशीलता की उपज है।
- अधिगम व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है।
- सीखना विवेकपूर्ण होता है।
अधिगम व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों हैं।
योकम व सिम्पसन के अनुसार “सीखना सामाजिक है, क्योंकि र • किसी प्रकार के सामाजिक वातावरण के अभाव में व्यक्ति का सीखना असंभव है।”मनोविज्ञान क्या है ,अर्थ और 10 परिभाषा | What Is Psychology in Hindi
सीखने की विधियाँ (Methods of Learning)
किसी भी विषय पाठ को सीखने के लिए जिस प्रविधि का उपयोग किया जाता है उसे सीखने की विधि कहा जाता है। सीखने की कई विधियाँ हैं उनमें से प्रमुख का विवरण इस प्रकार है।
अधिगम का अर्थ,प्रकार,सीखने की विधियाँ और अधिगम के सिद्धांत (Meaning,Types,Methods and Theories of Learning)
अविराम विधि तथा विराम विधि–
विराम विधि सीखने की ऐसी विधि है जिसमें व्यक्ति किसी पाठ या विषय को थोड़ा आराम दे-दे कर रुक-रुक कर या बीच-बीच में विश्राम ले कर सीखता है। अविराम विधि में व्यक्ति को इस तरह का कोई विश्राम नहीं होता और वह लगातार ही एक पाठ या विषय को सीखता है।
- सामान्यतः जब सीखा जाने वाला विषय काफी लंबा तथा कठिन होता है तो विराम विधि, अविराम विधि से श्रेष्ठ मानी जाती है।
- परन्तु जब सीखा जाने वाला विषय छोटा रहता है तथा रटने वाला हो तो अविराम विधि बेहतर मानी जाती है।
- “मनोवैज्ञानिकों के अनुसार कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर ‘विराम विधि, अविराम विधि से अधिक गुणकारी होती है। विराम “विधि द्वारा सीखने से व्यक्ति की अभिरुचि बनी रहती है क्योंकि इसमें अधिगमकर्ता को थकान महसूस नहीं होती है।
• विराम विधि द्वारा सीखा गया पाठ सामान्यतः अधिक दिनों तक याद रहता हैं क्योंकि पाठ को सीखने के दौरान मस्तिष्क में बने स्मृति चिन्हों को सुदृढ़ होने का मौका विश्राम की अवधि में मिल जाता है।
- विराम विधि द्वारा सीखने से व्यक्ति में मानसिक थकान उत्पन्न नहीं होती है क्योंकि उसे बीच बीच में विश्राम मिल जाता है।
पूर्ण विधि तथा अंश विधि (Whole Method and Part Method) यदि अधिगमकर्ता किसी पाठ को शुरू से अंत तक एक साथ पढ़ कर सीखता है तो इसे पूर्ण विधि कहा जाता है। परन्तु जब वह उस पाठ को अपनी सुविधानुसार कुछ भागों में बाँट कर प्रत्येक अंश को एक दूसरे के बाद सीखता है तो इसे अंश विधि कहा जाता है। अंश विधि तथा पूर्ण विधि दोनों ही लाभदायक हैं परन्तु विशेष परिस्थिति के अनुसार एक विधि दूसरी से श्रेष्ठ मानी जाती है। दोनों में से कौन सी विधि अधिक लाभदायक होगी यह निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करता है
- यदि अधिगमकर्ता में सीखने का अभिप्रेरक अधिक है तो पूर्ण विधि अंश विधि से श्रेष्ठ होंगी।
- सामान्यतः जब किसी पाठ को सीखने की प्रारंभिक अवस्था मे अंश विधि अधिक उपयोग आती है परंतु अंतिम अवस्था मे पूर्ण विधि अधिक उपयोगी होती है । मनोविज्ञान क्या है ,अर्थ और 10 परिभाषा | What Is Psychology in Hindi
- अधिगम या सीखने के प्रकार (Types Of Learning)
मनोवैज्ञानिकों द्वारा अधिगम के कई प्रकारों का वर्णन किया गया है। आसुबेल (Ausubel) ने सीखने के निम्नलिखित प्रमुख प्रकार बताए हैं
- अभिग्रहण सीखना (Receptive Learning)
- अन्वेषण सीखना (Explorative Learning)
- रटकर सीखना (Rote Learning)
- अर्थपूर्ण सीखना (Meaningful Learning)
1.अभिग्रहण सीखना – इस प्रकार के अधिगम में अधिगमकर्ता को सीखने वाली सामग्री बोलकर या लिख कर दे दी जाती है और अधिगमकर्ता उस सामग्री को आत्मसात कर लेता है। आसुबेल के अनुसार यह रटकर भी हो सकता है तथा समझकर भी।
2.अन्वेषण सीखना – इस प्रकार के अधिगम में अधिगमकर्ता को दी गई सामग्रियों में से नया संप्रत्यय या कोई नया नियम या विचार की खोज कर उसे सीखना होता है।
3. रटकर सीखना – इस प्रकार में अधिगमकर्ता दिए गए सामग्रियों के साहचर्य शब्दशः तथा बिना उसका आशय समझे हुए सीखता है। 4.अर्थपूर्ण सीखना – आसुबेल के अनुसार इस तरह का अधिगम शिक्षा में विशेष महत्व रखता है। इस प्रकार में सीखने वाली सामग्री के सार तत्व को एक नियम के अनुसार समझकर तथा उसका संबंध पूर्व ज्ञान से जोड़ते हुए सीखा जाता है।
अधिगम के सिद्धांत (Theories of Learning)
मनोवैज्ञानिकों द्वारा सीखने की प्रक्रिया को समझने के लिए तथा सीखने के स्वरूप की व्याख्या करने के लिए कई सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं। इन सिद्धांतों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है-
1.व्यवहारवादी साहचर्य सिद्धांत या उद्दीपक अनुक्रिया सिद्धांत (Behaviourist Theories or Stimulus Response Theories) – इन सिद्धांतों के अनुसार सीखने की प्रक्रिया में प्राणी उद्दीपक तथा अनुक्रिया के बीच एक संबंध स्थापित करता है। इनमें से कुछ मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि उद्दीपक तथा अनुक्रिया के बीच जो संबंध स्थापित होता है उसका आधार पुनर्बलन होता है। जब सही अनुक्रिया के बाद प्राणी को पुनर्बलन प्राप्त होता है तो इसका प्रभाव यह होता है कि भविष्य में उस उद्दीपक के सामने आने पर प्राणी वही अनुक्रिया करता है। इस श्रेणी में थार्नडाइक, पावलव, हल, स्किनर आदि के सिद्धांत रखे जाते हैं।
2.संज्ञानात्मक एवं क्षेत्र संगठनात्मक सिद्धांत/उद्दीपक उद्दीपक सिद्धांत (Cognitive & Field Organizational Theories or Stimulus-Stimulus Theories) – इन सिद्धांत का प्रतिपादन उद्दीपक अनुक्रिया सिद्धांत के विरोध में हुआ। इन सिद्धांतों के अनुसार सीखने की किसी भी परिस्थिति में कई उद्दीपक होते हैं। अधिगमकर्ता को उन विभिन्न उद्दीपक का अर्थ तथा उनके आपसी संबंधों को समझना होता है।
अतः इस प्रकार के सिद्धांतों को प्रतिपादित करने वाले मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि उद्दीपक तथा अनुक्रिया के मध्य सिर्फ यंत्रवत संबंध ही नहीं स्थापित हो जाते बल्कि इन दोनों के मध्य व्यक्ति की इच्छाएँ, भावनाएँ, क्षमताएँ, चिंतन, अभिरुचि, अभिवृत्ति, मूल्य, पूर्व अनुभव, प्रशिक्षण आदि अनेक तत्व हैं जो सीखने की क्रिया को • प्रभावित करते हैं। इसी कारण एक ही उद्दीपक की उपस्थिति पर विभिन्न व्यक्ति अलग अलग प्रकार की अनुक्रियाएँ करते हैं। इस श्रेणी में कोहलर, लेविन, टॉलमैन, पियाजे आदि के अधिगम सिद्धांत रखे जाते हैं। अधिगम के मुख्य सिद्धांतों का वर्णन अगले सेक्शन में किया जा रहा है।
अब हम मनोविज्ञान के मुख्यतः सभी सिद्धान्तों का वर्णन करेगे –
क्लासिकल अनुबंध का सिद्धांत (Classical Conditioning Theory)
क्लासिकल अनुबंध का सिद्धांत (Classical Conditioning Theory)
जनक :- इवान पेत्रोविच पावलव (Ivan Petrovid Pavlov)
प्रयोग :- कुत्ते पर
समय :- 1904
उपाधि :- अनुबन्धन का जनक (Founder of Conditioning) चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार प्राप्तकर्ता (Nobel Prize Winner)
पावलव के सिद्धान्तों को अन्य नामो से भी जाना जाता है
सिद्धान्त के अन्य नाम:
1.प्राचीन अनुबन्धन का सिद्धान्त
2.शास्त्रीय अनुकूलन का सिद्धान्त
3.सम्बन्ध प्रत्यावर्तन का सिद्धान्त
4.अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्त
5.अनुबंधित अनुक्रिया का सिद्धान्त
शास्त्रीय अनुबंधन के सिद्धांत में पावलव द्वारा अस्वाभाविक उद्दीपक के प्रति स्वाभाविक अनुक्रिया उत्पन्न कराई गई। यह करने के लिए उन्होंने कुत्ते पर प्रयोग किया जो काफी प्रसिद्ध हुआ। प्रयोग के अन्तर्गत पावलव ने भोजन देने से पहले एक घण्टी बजाना प्रारम्भ किया और जब यह प्रक्रिया उन्होंने बार-बार दोहराई तब भोजन के प्रति होने वाली स्वभाविक अनुक्रिया घण्टी के प्रति भी होने लगी। इसका मुख्य कारण भोजन तथा घण्टी का बार-बार एक साथ उपस्थित होना था। अतः इस प्रक्रिया को अनुबंधन नाम दिया गया क्योंकि घण्टी का अनुबंध भोजन से स्थापित किया गया था।
स्थिति – 1 अनुबंधन से पहले | भोजन अनुबंधित/स्वाभाविक प्राकृतिक उद्दीपक UCS | लार आना अनुबंधित/स्वाभाविक प्राकृतिक अनुक्रिया UCR |
स्थिति – 2 अनुबंधन के समय | घंटी अनुबंधित उद्दीपक CS + भोजन अनुबंधित स्वाभाविक उद्दीपक UCS | लार आना अनुबंधित या स्वाभाविक प्राकृतिक अनुक्रिया UCR |
स्थिति – 3 अनुबंधन के बाद | घंटी बजाना अनुबंधित उद्दीपक CS | लार आना अनुकूलित अनुक्रिया या अनुबंधित अनुक्रिया CR |
प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धांत (Trail and Error Theory)
जनक- एडवर्ड एल. थॉर्नडाइक (Edward L. Thorndike)
प्रयोग- बिल्ली
थार्नडाइक के सिद्धांतों के अन्य नाम
- प्रयास व त्रुटि का सिद्धान्त
- उद्दीपक- अनुक्रिया सिद्धान्त
- बंध का सिद्धान्त
- संयोजनवाद का सिद्धान्त
- सम्बन्धवाद का सिद्धान्त
- S-R Theory
- प्रयत्न व भूल का सिद्धान्त
थॉर्नडाइक (Thorndike) को प्रथम शैक्षिक मनोवैज्ञानिक (1st Educational Psychologist) माना जाता है। उन्होंने अपने डॉक्टरेट के अध्ययन में जीव व्यवहार के सम्बन्ध में अधिगम के बारे में बताया। उनका शोध ‘ऐनिमल इन्टेलिजेंस’ (Animal Intelligence) नाम से 1898 में प्रकाशित हुआ। इसी में उन्होंने अधिगम के प्रयास एवं त्रुटि सिद्धांत की व्याख्या की। उन्होंने अपने प्रयोगों में यह ज्ञात किया कि विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान हेतु प्राणी किस प्रकार गतिविधियाँ करता है। भारत के राज्य,केंद्र शासित प्रदेश और राजधानियों की सूची 2022
थॉर्नडाइक ने एक भूखी बिल्ली को एक Puzzle Box (उलझन पेटिका) में बन्द कर दिया। पेटिका में केवल एक दरवाजा था जो कि एक लीवर के ठीक प्रकार दबने से खुल सकता था। पेटिका के बाहर कुछ दूरी पर भोजन रखा गया था। भोजन की गंध ने इस परिस्थिति में एक शक्तिशाली अभिप्रेरक का कार्य किया और बिल्ली पेटिका से आने के लिए कई प्रयत्न करने लगी।
बिल्ली ने सभी तरह से उल्टे-सीधे पंजे चलाये तथा उछल-कूद की। इन प्रयत्नों के फलस्वरूप संयोगवश एक बार उसका पंजा लीवर पर पड़ गया और दरवाजा खुल गया। बाहर आकर बिल्ली ने भोजन खा लिया। यही प्रयोग द्वारा दोहराया गया और उसके बाद कई बार दोहराने पर यह पाया गया कि धीरे-धीरे बिल्ली की गलत अनुक्रियाओं की संख्या कम होती गई तथा बाहर निकलने में लगने वाला समय भी घटता गया। यहाँ तक कि आखिर में बिल्ली ने बिना कोई त्रुटि किये पहली बार में ही लीवर को दबा कर दरवाजा खोल लिया।
इस सिद्धांत का मूल यह है कि जब प्राणी कोई कार्य सीखता है तब उसके समक्ष एक विशेष उद्दीपक या स्थिति होती है जो उसे विशिष्ट प्रकार की अनुक्रिया करने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार एक विशिष्ट उद्दीपक का एक विशिष्ट अनुक्रिया से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है जिसे उद्दीपक-अनुक्रिया सम्बन्ध कहा जाता है। इस संबंध के फलस्वरूप जब प्राणी भविष्य में उसी उद्दीपक का अनुभव करता है। तब वह उससे सम्बन्धित अनुक्रिया दोहराता है।
थॉर्नडाइक के अनुसार ‘सीखना संबंध स्थापित करना है। संबंध स्थापित करने का कार्य मनुष्य का मस्तिष्क करता है।”
‘थॉर्नडाइक के सीखने के सिद्धान्त के प्रमुख तत्व –
- आवश्यकता (Need)
- तत्परता (Readiness)
- अभ्यास (Practice)
- प्रोत्साहन (Incentive)
थॉर्नडाइक के अनुसार सीखने की प्रक्रिया में निम्नलिखित सोपान सम्मिलित होते हैं
- चालक या अभिप्रेरक (Drive or Motive)
- लक्ष्य (Goal)
- लक्ष्य प्राप्ति में बाधा (Barrier in Achieving Goal)
- उल्टे-सीधे प्रयत्न (Random Movements)
- संयोगवश सफलता प्राप्त होना (Getting Chance Success)
- सही अनुक्रिया का चुनाव (Selection of Correct Response)
- स्थिरता (Fixation)
थॉर्नडाइक के सीखने के नियम (Thorndike’s Laws of Learning) –
मुख्य नियम (Primary laws)
- 1.तत्परता का नियम (Law of Readiness)
2. अभ्यास का नियम (Law of Exercise)
3.प्रभाव का नियम (Law of Effect)
गौण नियम
1.बहु अनुक्रिया का नियम (Law of Multiple response)
2. मनोवृत्ति का नियम (Law of Attitude)
3.आंशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity)
4.सादृश्यता या आत्मसातीकरण का नियम (Law of Assimilation)
- 5.साहचर्यात्मक स्थानांतरण का नियम (Law of Associative shifting)
- क्रिया प्रसूत अनुबंधन का सिद्धांत ( Operant Conditioning Theory)
जनक: बी. एफ. स्किनर (B.F. Skinner)
अन्य नाम
साधनात्मक अनुबन्धन का सिद्धान्त
नैमेत्तिक अनुबन्धन का सिद्धान्त उत्सर्जित अनुक्रिया का सिद्धान्त
‘R-Type’ अनुबन्धन का सिद्धान्त
R-S Theory
स्किनर ने अपनी पुस्तक ‘द बिहेवियर ऑफ ऑर्गेनिज्म‘ (The Behaviour of Organisms, 1938) में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। स्किनर ने व्यवहार के दो प्रकार बताये अनुक्रियात्मक तथा कार्यात्मक अनुक्रियात्मक व्यवहार के अन्तर्गत ऐसी अनुक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं जो किसी ज्ञात उद्दीपक के कारण उत्पन्न होती हैं। जबकि कार्यात्मक व्यवहार के अन्तर्गत ऐसी अनुक्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं जो किसी ज्ञात उद्दीपक के कारण नहीं होती, यहाँ अनुक्रियाओं की कुँजी उद्दीपक के हाथ में ना होकर अनुक्रिया द्वारा उत्पन्न परिणामों के पास होती है।
स्किनर के अनुसार सक्रिय अनुबंधन से अभिप्राय एक ऐसी अधिगम प्रक्रिया से है जिसके द्वारा सक्रिय व्यवहार को सुनियोजित पुनर्बलन द्वारा पर्याप्त बल मिल जाने के कारण वांछित रूप से पुनरावृति होती रहती है और सीखने वाला अन्त तक वैसा व्यवहार सीख जाता है जैसा व्यवहार सिखाने वाला उससे चाहता है। इस प्रक्रिया में अधिगमकर्ता को पहले कोई ना कोई क्रिया करनी पड़ती है यही अनुक्रिया पुनर्बलन उत्पन्न करने में माध्यम का कार्य करती है।
पुनर्बलन प्राप्त होने पर सीखने वाला उसी व्यवहार की पुनरावृत्ति करता है जिसके परिणामस्वरूप उसे पुरस्कार प्राप्त हुआ था। व्यवहार की यह पुनरावृति उसे फिर पुनर्बलन प्राप्त कराती है और वह फिर अधिक गति से अपने व्यवहार की पुनरावृत्ति करता है और इस प्रकार से अन्त में अधिगमकर्ता वांछित व्यवहार सीख जाता है।
स्किनर ने अपना पहला प्रयोग चूहे पर किया ।
दूसरा प्रयोग कबूतर पर स्किनर ने चूहों पर प्रयोग के लिये जिस यंत्र का निर्माण किया उसका नाम “क्रिया प्रसूत कक्ष” था ।
अंतरदृष्टि व सूझ का सिद्धांत ( Insightful or Theory )
इसका अन्य नाम गेस्टाल्ट का सिद्धांत है
गेस्टाल्टवाद के प्रतिपादक – वर्दीमर अन्य गेस्टाल्टवादी- कोहलर व कोफ्का (Wertheimer),(Kohler & Koffka)
गेस्टाल्ट (Gestalt) एक जर्मन शब्द है। जिसका अर्थ होता है – समग्र या सम्पूर्ण (Whole) पूर्ण कार्यवाही सिद्धांत गेस्टाल्ट अधिगम सिद्धांत के प्रतिपादक –कोहलर
प्रयोग – चिंपैंजी सुल्तान पर (1913 से 1918 तक कैनेरी द्वीप पर) कोहलर की पुस्तक – ‘चिंपैंजी की मानसिकता’(Mentality of Apes, 1925)
मैक्स वर्दीमर की पुस्तक –’ थ्योरी ऑफ गेस्टाल्टवाद’ (Theory Of Gestalism, 1912)
सिद्धांत का अर्थ
गेस्टाल्टवादियों के अनुसार सीखने की प्रक्रिया प्रत्यक्षीकरण (perception making) पर निर्भर करती है। गेस्टाल्टवादियों ने अपने सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए कहा कि जब भी प्राणी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए क्रियाशील होता है और जब लक्ष्य प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होती है तब प्राणी में तनाव प्रारंभ हो जाता है इसी तनाव को कम करने के लिये ओर बाधा को समाप्त करने के लिये प्राणी परिस्थिति का प्रत्यक्षिकर्ण करना प्रारंभ करता है ।
कोहलर ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि अधिगम में संज्ञानात्मक कारकों की महत्त्वपर्ण भूमिका होती है। उनके अनुसार जब प्राणी के समक्ष कोई समस्या उत्पन्न होती है तब वह उस समस्या, परिस्थिति का पूर्ण रूप से प्रत्यक्षण करता है तथा उस परिस्थिति में उपस्थित विभिन्न उद्दीपकों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश करता है। जिसके फलस्वरूप उसमें सूझ उत्पन्न होती है तथा वह समस्या का समाधान कर लेता है।
कोहलर ने माना कि सूझ सदैव अचानक उत्पन्न होती है तथा अधिगम सूझ के फलस्वरूप ही होता है। इसी कारण अधिगम भी अचानक होने वाली प्रक्रिया है । कोहलर के इस मत के अनुसार उन्होंने अधिगम में अभ्यास के महत्त्व को नहीं स्वीकारा तथा थॉर्नडाइक के प्रयास एवं त्रुटि सिद्धांत को भी अस्वीकार किया।
प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में अनुभवों का संगठन अंशों के रूप में होने लगता है और जब अनुभवों का पुर्नसंगठन होने लगता है तब ही प्राणी वातावरण का सही प्रत्यक्षीकरण करने में समर्थ होता है। वातावरण का सही प्रत्यक्षीकरण होते ही वातावरण में उपस्थित वस्तुएँ अर्थपूर्ण रूप में दिखाई देने लगती हैं इस रूप में दिखाई देने वाली वस्तुओं से जब समस्या का समाधान अचानक पकड़ में आ जाता है तब समस्या के समाधान का अचानक पकड़ में आना ही अंतर्दृष्टि वह सूझ का सिद्धांत कहलाता है।
अंतरदृष्टि एवं सूझ को प्रभावित करने वाले कारक ( Factors I fluencing Insight)
- आयु
- वुद्धि
- अनुभव
- प्रत्यक्षीकरण
- कल्पना
शिक्षा में उपयोग
- यह सिद्धांत शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में पूर्ण से अंश विधि का प्रयोग करने पर बल देता है।
- यह सिद्धांत सीखने की प्रक्रिया में रटने की अपेक्षा समझने पर बल देता है।
- यह सिद्धांत शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में बालक को की संज्ञानात्मक योग्यताओं के प्रत्यक्षीकरण, तर्क, चिंतन, कल्पना एवं समस्या समाधान को विकसित करने पर बल देता है।
- यह सिद्धांत अध्यापक को विषय वस्तु को पढ़ाने से पूर्व उसके समग्र प्रस्तुतीकरण पर बल देता है।
- यह सिद्धांत खोज एवं अनुसंधान के आधार पर बालक को सिखाने पर बल देता है।
सामाजिक अधिगम या प्रेक्षणात्मक अधिगम का सिद्धांत ( Social Learning and Observation Learning )
जनक : अलबर्ट बेन्डुरा (Albert Bandura)
पुस्तकें : ‘अडोले सेन्ट अग्रेशन’ (Adolescent Aggression, 1959), ‘सोशल लर्निंग थ्योरी’ (Social LearningTheory, 1977)
बेन्डुरा ने संज्ञानात्मक मनोविज्ञान से प्रभावित होकर 1986 में अपने सिद्धांत का नाम सामाजिक अधिगम सिद्धांत (Social Learning Theory) से परिवर्तित कर सामाजिक संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांत (Social Cognitive Learning Theory) कर दिया तथा अपने सिद्धांत में संज्ञानात्मक कारकों के महत्त्व को सम्मिलित किया ।
- प्रेक्षणात्मक अधिगम दूसरों का प्रेक्षण करने से घटित होता है। अधिगम के इस रूप को पहले अनुकरण भी कहा जाता था। इस सिद्धांत को मॉडलिंग (Modeling) भी कहा जाता है।
- बंडूरा को प्रेरणात्मक अधिगम का प्रवर्तक माना जाता है।
- इस प्रकार के अधिगम में व्यक्ति सामाजिक व्यवहार को सीखता है इसलिए इसे कभी-कभी सामाजिक अधिगम भी कहा जाता है।
- बहुत बार व्यक्ति के सामने ऐसी सामाजिक स्थितियाँ आती हैं जिनमें उसे यह पता नहीं होता है कि उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए। ऐसी स्थिति में वह दूसरों के व्यवहार का प्रेक्षण करता है और उनकी तरह व्यवहार करने लगता है।
- इस प्रकार के अधिगम को मॉडलिंग कहते हैं।
प्रयोग
बंडूरा ने सामाजिक अधिगम को समझने के लिए एक प्रयोग किया जिसमें बच्चों को एक छोटी फिल्म दिखाई गई। फिल्म में एक कमरे में बहुत सारे खिलौने रखे थे। उनमें एक खिलौना बहुत बड़ा सा गुड्डा बोबो डॉल था। एक लड़का कमरे में प्रवेश करता है तथा सभी खिलौनों के प्रति क्रोध प्रदर्शित करता है और बड़े खिलौनों के प्रति विशेष रूप से आक्रामक हो उठता है और उन्हें तोड़ने लगता है। इसके बाद का घटनाक्रम तीन अलग रूपों में तीन फिल्मों में तैयार किया गया।
पहली फिल्म में बच्चों के एक समूह ने देखा कि आक्रामक व्यवहार करने वाले लड़के मॉडल को पुरस्कृत किया गया और एक वयस्क व्यक्ति ने उसके आक्रामक व्यवहार की प्रशंसा की। दूसरी फिल्म में बच्चों के समूह ने देखा कि उस लड़के को उसके आक्रामक व्यवहार के लिए दंडित किया गया। तीसरी फिल्म में बच्चों के तीसरे समूह ने देखा कि लड़के को ना तो पुरस्कृत किया गया और ना ही दंडित किया गया।
- फिल्म देख लेने के बाद सभी बच्चों को एक अलग प्रायोगिक कक्ष में बिठाकर विभिन्न प्रकार के खिलौनों से खेलने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया। प्रयोग में यह पाया गया कि जिन बच्चों ने खिलौनों के प्रति किए जाने वाले आक्रामक व्यवहार को पुरस्कृत होते हुए देखा था वह खिलौनों के प्रति सबसे अधिक आक्रामक थे।
- सबसे कम आक्रामकता उन बच्चों ने दिखाई जिन्होंने फिल्म में आक्रामक व्यवहार को दंडित होते हुए देखा था।
क्षेत्र का सिद्धांत (Field Theory)
यह सिद्धान्त कर्ट लेविन (Kurt Lekin)द्वारा प्रस्तुत किया गया। उन्होंने जर्मनी में गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के साथ कार्य किया तथा फिर अमेरिका जाकर अपना कार्य पूर्ण किया। लेविन ने अपने सिद्धांत में मुख्य आधार वातावरण में व्यक्ति की स्थिति को बताया है। उन्होंने ‘जीवन-स्थल‘ (Life-Space) के आधार पर व्यक्तित्व के अनुभवों की व्याख्या की है। उन्होंने माना कि जीवन स्थल (Life-Space) वह वातावरण है, जिसमें व्यक्ति रहता है और जिससे प्रभावित होता है। व्यक्ति का जीवन-स्थल उसकी मनोवैज्ञानिक शक्तियों पर निर्भर करता है।
सीखने की प्रक्रिया को समझने के लिए यह समझना आवश्यक है कि जीवन-स्थल का नव संगठन किस प्रकार होता है तथा मनोवैज्ञानिक संसार की संरचना किस प्रकार होती है। लेविन ने माना कि सीखना व्यक्ति के अनुभवों या जीवन-स्थल की संरचना में परिवर्तन लाने से होता है।
उन्होंने अपने सिद्धांत की व्याख्या करने में गणित (ज्यामिति) के कुछ शब्दों जैसे – क्षेत्रफल, जीवन विस्तार, तलरूप, शक्ति, वेक्टर आदि का प्रयोग किया है। सीखने की प्रक्रिया की व्याख्या भी उन्होंने व्यक्ति, वातावरण, बाधाओं पर विजय तथा उद्देश्यों की प्राप्ति की व्याख्या करके की है। किसी व्यक्ति को लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अवरोधों (Barriers) को पार करना आवश्यक है।
ये अवरोध भौतिक या मनोवैज्ञानिक हो सकते हैं। लेविन ने सीखने की प्रक्रिया में प्रेरणा तथा प्रत्यक्षीकरण पर बल दिया। प्राणी के समक्ष उपस्थित लक्ष्य सामान्यतः धनात्मक तथा ऋणात्मक शक्तियों से परिपूर्ण होते हैं। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अवरोधों को दूर करना आवश्यक होता है जो कि जीवन-स्थल की संरचना को बदल देता है। अतः जीवन-स्थल का इस प्रकार का पुनर्संगठन ही अधिगम कहलाता है। जीवन-स्थल में व्यक्ति और लक्ष्य के बीच के अवरोधकों को दूर करने के लिए अन्तर्दृष्टि विकसित होती है ।
चिन्ह अधिगम/ अव्यक्त अधिगम का सिद्धांत (Sign Learning/ Latent Learning Theory)
टॉलमैन (Tolman) द्वारा प्रतिपादित अधिगम के सिद्धांत के अनुसार प्राणी द्वारा नया व्यवहार सीख लिया जाता है परन्तु यह व्यवहार व्यक्त नहीं किया जाता/ दर्शाया नहीं जाता यदि उसे दर्शाने हेतु प्राणी को प्रबलन न प्राप्त होता हो। इस प्रकार टॉलमैन ने ‘अव्यक्त अधिगम‘ (Latent Learning) का संप्रत्यय प्रस्तुत किया। इस संप्रत्यय को प्रस्तुत करने का मुख्य आधार टॉलमैन तथा हॉन्जिक (Tolman and Honzik) द्वारा चूहों पर किये गये प्रयोग थे।
इस प्रयोगों के आधार पर टॉलमैन ने निष्कर्ष निकाला कि ‘अधिगम‘ व ‘निष्पादन‘ दो अलग-अलग प्रक्रियाएँ हैं तथा यह संभव है कि किसी प्राणी में अधिगम तो सम्पन्न हो जाए पर वह उस अधिगम को ‘निष्पादन’ के रूप में प्रस्तुत न करे। अतः इस प्रकार के अधिगम को जो ‘निष्पादन’ के रूप में प्रदर्शित ना
हो, टॉलमैन ने ‘अव्यक्त अधिगम‘ कहा।
टॉलमैन ने ‘उद्देश्यपूर्ण व्यवहारवाद’ (Purposive Behaviourism) की शुरुआत की। उनका मत था कि व्यवहारवाद की संकल्पना में एक उद्देश्यपूर्ण प्राणी के रूप में किसी भी प्राणी का अध्ययन किया जाना
आवश्यक है। उनका मानना था कि प्राणी द्वारा किये गये सभी व्यवहार उद्देश्पूर्ण होते हैं तथा चूँकि व्यवहारवाद में प्राणी के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है, उसमें उद्देश्यपूर्ण व्यवहारवाद को सम्मिलित किया जाना चाहिए।
टॉलमैन ने अधिगम को एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया माना है तथा उन्होंने बताया कि यह एक लक्ष्य – आधारित प्रक्रिया होती है। अतः किसी भी परिस्थिति में अधिगम की संभावना सर्वाधिक तब होती है। जब उस व्यवहार से कोई लक्ष्य संबंधित हो।
टॉलमैन ने ‘संज्ञानात्मक मानचित्र’ (Cognitive Map) का सम्प्रत्यय भी प्रतिपादित किया। संज्ञानात्मक मानचित्र से आशय अधिगम प्रक्रिया के दौरान मस्तिष्क के बनने वाले विभिन्न चिह्नों के सम्मिलित रूप से बने मानचित्र से होता है। प्राणी द्वारा विभिन्न विकल्प बिन्दुओं (Choice Points) में से जब किसी विशेष विकल्प बिन्दु को चुनने पर सफलता प्राप्त होती है तो, उस विशिष्ट विकल्प बिंदु के साथ उसकी प्रत्याशा (expectation) जुड़ जाती है और इस प्रकार उस विशिष्ट विकल्प बिंदु से संबंधित चिह्न मस्तिष्क में उत्पन्न होता है तथा प्रत्येक प्रयास के साथ सुदृढ़ होता जाता है।
अधिगम का अर्थ,प्रकार,सीखने की विधियाँ और अधिगम के सिद्धांत (Meaning,Types,Methods and Theories of Learning)
पुनर्बलन सिद्धान्त (Reinforcement Theory)
यह सिद्धांत अमेरिकी मनोवैज्ञानिक क्लार्क हल (Clark Hull) द्वारा 1930 में प्रस्तुत किया गया। व्यवहार के सिद्धांत (Principles of Behaviour) नामक पुस्तक में किया। इस सिद्धांत का संशोधन 1951 में प्रकाशित ‘व्यवहार के आवश्यक तत्व’ (Essential Elements of Psychology) नामक पुस्तक में किया। हल ने अपने सिद्धांत को 17 स्वयं-सिद्धियों, 17 उप-सिद्धांतों तथा 133 प्रमेयों को आधार बनाकर की। उनके सिद्धांत को ‘गणितीय-निर्गमन का सिद्धांत‘ (Mathematico–deductive Theory) भी कहा जाता है।
हल ने सीखने की प्रक्रिया में पुनर्बलन को अत्यंत महत्वपूर्ण माना है। प्राणी में जब कोई आवश्यकता उत्पन्न होती है तो उससे संबंधित, चालक भी उत्पन्न होता है। सीखने की प्रक्रिया में चालक (Drive) के महत्व को भी हल ने बताया है। पुनर्बलक प्राप्त होने पर प्राणी की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है तथा साथ ही संबंधित चालक की भी संतुष्टि हो जाती है। अतः आवश्यकता की स्थिति में, अभिप्रेरणा उत्पन्न होने पर प्राणी की क्रियाएँ उद्देश्यपूर्ण हो जाती हैं तथा क्रिया करने से यदि उसकी आवश्यकता की पूर्ति होती है, तो वह उस क्रिया को दोहराता है।
इस प्रकार उसे पुरस्कार स्वरूप पुनर्बलन की प्राप्ति होती है तथा जिस प्रक्रिया को किये जाने पर पुनर्बलन प्राप्त होता है, प्राणी उसी क्रिया को दोहराता है।
सामीप्यता सिद्धान्त/एकल प्रयास का सिद्धांत (Contiguity Theory/Theory of single Trial)
यह सिद्धांत एडविन रे गुथरी (E.R. Guthrie) द्वारा प्रस्तुत किया गया। गथरी ने अपना मन प्रस्तुत किया कि उत्तेजक / उद्दीपक तथा अनुक्रिया यदि एक बार भी साथ घटित हो जाती है तो भविष्य में जब भी वह उद्दीपक प्रस्तुत किया जाता है, तो वही अनुक्रिया होती है। उन्होंने तथा हॉर्टन (Hortan) ने बिल्ली पर कई प्रयोग किये तथा निष्कर्ष निकाला कि उद्दीपक तथा अनुक्रिया में संबंध सर्वप्रथम प्रयास में ही स्थापित हो जाता है। प्रयोगों में उन्होंने पाया कि बिल्ली जिस गति तथा स्थिति में पिंजरे से निकलकर खाना पाती है, अन्य प्रयासों में वही क्रिया बार-बार दोहराती है, जिस क्रिया को उसने प्रथम बार करके पिंजरे से बाहर निकलकर खाना प्राप्त किया था।
अतः गुथरी ने माना कि अधिगम के सम्पन्न होने के लिए उद्दीपक तथा अनुक्रिया की सामाप्यिता उत्तरदायी होती है। उनके अनुसार अधिगम के दौरान प्राणी अपनी शारीरिक गति तथा अवस्थिति के रूप में अनुक्रियाएँ करता है तथा उस विशिष्ट शारिरिक गति एवं अवस्थिति को ही सीखता है जो उसे सफलता प्राप्त करवाती है।
गुथरी ने अधिगम में पुनर्बलन के महत्त्व को स्वीकार नहीं किया। उनका मानना था कि पुनर्बलन तो अनुक्रिया हो जाने के पश्चात् दिया जाता है और इस कारण पुनर्बलन का अनुक्रिया के सीखने से कोई संबंध नहीं होता। गुथरी ने अपने सिद्धांत में आदतों को छोड़ने के कुछ तरीके बताये।
उनका मानना था कि जब कोई अनुक्रिया बार-बार विशिष्ट उद्दीपकों की सामीप्यता में घटित होती है तब प्राणी की आदत विकसित हो जाती है। अतः आदतों को छोड़ने के लिए उद्दीपक तथा अनुक्रिया की सामीप्यता को खत्म कर देना होता है। उनके द्वारा आदतों को छोड़ने की तीन मुख्य विधियाँ बतायी गई
- देहली विधि (Threshold Method)
- थकान विधि (Fatigue Method)
- अनानुकूल प्रतिक्रिया विधि (Incompatible Response Method)
दोस्तो आज के इस लेख अधिगम का अर्थ,प्रकार,सीखने की विधियाँ और अधिगम के सिद्धांत (Meaning,Types,Methods and Theories of Learning) हमने अधिगम की परिभाषा ,प्रकार,अधिगम की विधियाँ ओर सिद्धान्तों का बताया है अगर आपको हमारी पोस्ट अच्छी लगी तो आप हमें comment के माध्यम से सम्पर्क कर सकते है ।अगर आप अपना कोई सुझाव देना चाहते तो जरूर दे ओर आप हमारी वेबसाइट www.akstudyhub.com पर बने रहे
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Akhilesh kumar…
gizli kamera
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